________________
२४
भी विशेष का ग्रहण नहीं हो सकता। क्योंकि सभी प्रमाण प्रत्यक्षपूर्वक हैं । अतः सामान्य ही वस्तुतः सत् है, विशेष नहीं ।
• संग्रहनय सभी पदार्थों को सामान्यरूप से संग्रह करता है । इस नयानुसार विशेषों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । इससे यह सिद्ध होता है कि समस्त विशेषों से रहित सत्त्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य के आधार पर पदार्थों का संग्राहक ज्ञान संग्रह नय है । उसी तरह जाति विशेष के द्वारा संपूर्ण विशेषों को एकरूप से ग्रहण करने वाला ज्ञान संग्रहनय है ।
३. व्यवहारनय— व्यवहार प्रधान नय व्यवहारनय है अथवा सामान्य का निराकरण करने वाला नय व्यवहारनय है अर्थात् व्यवहारनय मुख्यरूप से विशेषधर्मों का ही ग्रहण करता है । उसका मानना है कि सत्सत् ऐसा कहने पर भी बोध तो घट, पट आदि किसी विशेष पदार्थ का ही होता है नहीं कि संग्रहनयसंगत किसी सामान्यपदार्थ का । क्योंकि सामान्य पदार्थ अर्थक्रिया करने में समर्थ न होने से लोक व्यवहार में उपयोगी नहीं बन सकता । अतः पदार्थ विशेषरूप ही है, नहीं कि सामान्यरूप । यथा—
प्रतिज्ञा — सामान्य कुछ भी नहीं है
हेतु — क्योंकि प्रत्यक्ष- योग्य होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता ।
उदाहरण- प्रत्यक्षयोग्य होने पर भी जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता वह " असत्" है जैसे घट रहित भूतल में “घट" " असत् (घटाभाव) है ।
उपनय — संग्रहनय सम्मत सामान्य प्रत्यक्ष योग्य होते हुए भी उपलब्ध नहीं होता ।
है
द्वार १२४
निगम — अत: असत्
पुनः व्यवहारनय, सामान्यवादी के सम्मुख तर्क प्रस्तुत करता है कि आपका सामान्य विशेष से भिन्न है या अभिन्न ? यदि प्रथम पक्ष मानें तो सामान्य का अभाव ही सिद्ध होता है क्योंकि विशेष से भिन्न सामान्य कुछ भी नहीं है जैसे विकसित, अर्धविकसित आदि अवस्थाविशेष से भिन्न आकाशपुष्प कुछ भी नहीं है । यदि द्वितीयपक्ष मानें तो भी विशेष ही सिद्ध होता है, सामान्य नहीं । क्योंकि विशेष से अभिन्न होने से तत्स्वरूपवत् सामान्य भी विशेषरूप ही है ।
विशेष का खण्डन करने के लिये संग्रहनय ने जो कहा कि- प्रत्यक्ष भाव पदार्थ से उत्पन्न होता अतः वह उसका ही बोध कराता है इत्यादि । यह कथन भी प्रलापमात्र ही है क्योंकि प्रत्यक्ष का वही आधार हैं, उत्पन्न होकर जिसका वह साक्षात्कार करता है । प्रत्यक्ष घटपटादि से उत्पन्न होता है और वह घटपटादिरूप विशेष को ही ग्रहण करता है न कि संग्रहनय संमत सामान्य को और घट, पटादि अभावात्मक नहीं है पर भावात्मक है अत: अर्थक्रिया समर्थ है । इस प्रकार विशेष ही प्रत्यक्ष सिद्ध है, सामान्य नहीं ।
|
Jain Education International
पुनः जो अर्थक्रिया समर्थ है वही वस्तुत: सत् है, इससे भी पदार्थ विशेष रूप ही सिद्ध होते हैं, कारण भारवहन करना .. दोहन करना आदि क्रिया में "गौ" आदि पदार्थ के विशेषरूप का ही उपयोग होता है सामान्य का नहीं अतः विशेष ही वास्तविक है, सामान्य नहीं ।
व्यवहारनय लोकव्यवहारप्रधान है। जैसे भ्रमर में पाँचों रंग होने पर भी काले रंग की अधिकता से लोग उसे काला ही मानते हैं वैसे व्यवहारनय भी भ्रमर को काला ही मानता है शेष रंगों की विवक्षा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org