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द्वार १२४
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अवान्तर सामान्य तथा परमाणु आदि नित्यद्रव्यों में रहने वाले विशेष धर्मों को परस्पर सर्वथा भिन्न मानता है। जैसा कि नैगम नय का मानना है-पदार्थों की व्यवस्था ज्ञान पर आधारित है। द्रव्य, गुण, कर्म आदि पदार्थों में 'द्रव्य सत्, गुण सत्, कर्म सत्' यह बोध व कथन सामान्यरूप से होता है। इस बोध व कथन का कारण द्रव्य, गुण व कर्म नहीं है क्योंकि द्रव्यादि अव्यापक है। यदि द्रव्यादि में होने वाले सत् प्रत्यय को द्रव्यमूलक मानें तो वह गुण-कर्म में नहीं होगा क्योंकि वहाँ “द्रव्यत्व" नहीं है। यदि सत् प्रत्यय गुणमूलक है तो वह द्रव्य व कर्म में नहीं होगा क्योंकि वहाँ गुणत्व नहीं है। इसी तरह कर्म का भी समझना चाहिये। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यादि से व्यतिरिक्त महासत्ता नामक कोई सामान्य है जिसके कारण द्रव्य, गुण, कर्म आदि में समानरूप से सत्..सत् ऐसा बोध होता है। पृथ्वी आदि नौ द्रव्यों में द्रव्य..द्रव्य ऐसा जो समानाकार बोध होता है उसका कारण सभी में रहने वाला द्रव्यत्व रूप अवान्तर सामान्य है। इस प्रकार रूप आदि सभी गुणों में गुण...गुण का, उत्क्षेपणादि कर्मों में कर्म..कर्म का, सभी गायों में गौः . . . गौ: का तथा सभी अश्वों में अश्व..अश्व का जो ज्ञान होता है वह क्रमश: गुणत्व, कर्मत्व, गोत्व, अश्वत्व आदि अवान्तर सामान्यमूलक है। अवान्तरसामान्य ‘सामान्यविशेष' भी कहलाते हैं, कारण ये अपने-अपने आधारभूत द्रव्य (पृथ्वी आदि सभी द्रव्य), गुण (रूपादि सभी गुण), कर्म (उत्क्षेपणादि सभी कर्म), सभी गायें तथा सभी घोड़ों में समानाकार प्रतीति कराते हैं इसलिये सामान्य हैं और विजातीय से अपने आधारों को अलग करते हैं अत: विशेष भी हैं। इसी तरह तुल्य जाति, गुण व क्रिया के आधारभूत नित्य द्रव्यों-परमाणु, आकाश, दिशा आदि को परस्पर अलग करने वाले मात्र विशेष धर्म हैं जो योगी पुरुषों को ही प्रत्यक्ष है। हम तो उनका मात्र अनुमान ही कर सकते हैं। यथा
प्रतिज्ञा–समान जाति, गुण व क्रिया के आधारभूत परमाणुओं में कोई न कोई व्यावर्तक (भिन्नता का बोधक) धर्म है।
हेतु-क्योंकि परमाणुओं में परस्पर भिन्नता का बोध होता है। उदाहरण-जैसे मोतियों के ढेर के बीच पड़ा सचिह्न मोती सब से भिन्न दिखाई देता है।
घट, पट आदि को सजातीय से भिन्न करने वाले जो अवान्तर विशेष हैं-रूप, परिमाण, आकार आदि वे सभी सामान्य व्यक्तियों के प्रत्यक्ष हैं। जैसे यह घड़ा, उस घड़े से अलग है क्योंकि यह लाल है। यहाँ दो घड़ों को भिन्न करने वाला लाल रंग अवान्तर विशेष है। वैसे ही आकार, परिमाण आदि के लिये समझना चाहिये। ये सभी के प्रत्यक्ष हैं।
पूर्वोक्त महासामान्य, अवान्तर सामान्य, विशेष और अवान्तर विशेष परस्पर भिन्न स्वरूप वाले हैं क्योंकि वैसे ही प्रतीत होते हैं। सामान्य का ग्राहक ज्ञान विशेष को ग्रहण नहीं कर सकता वैसे ही विशेष का ग्राहक ज्ञान सामान्य का बोध नहीं करा सकता अत: सामान्य और विशेष परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। जिस पदार्थ का ज्ञान जिस रूप में होता है उस पदार्थ को उसी रूप में मानना चाहि "नीलरंग" का ज्ञान “नील" रूप में होता है तो उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिये। इसी तरह सामान्य और विशेष परस्पर भिन्न दिखाई देते हैं अत: उन्हें भिन्न ही मानना चाहिये।
प्रश्न- यदि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करता है तो सामान्य और विशेष क्रमश: द्रव्य-पर्याय रूप होने से “नैगमनय” वस्तुत: द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक नयरूप होगा तथा
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