Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( ३३ ) अनन्तर सादि-आदि बंध-प्रकारों का भावाभावत्व, अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अंतर आदि को स्पष्ट करके मूल एवं उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा करके स्वामित्व का वर्णन किया है और इसके साथ ही प्रकृतिबंध का बिवेचन पूर्ण हुआ है। ____ इसके बाद स्थिति, निषेक, अबाधाकंडक, उत्कृष्ट जघन्य स्थितिबंध, स्थितिस्थान, संक्लेश और विशुद्धि स्थान, अध्यवसाय स्थान प्रमाण, साद्यादि, स्वामित्व और शुभाशुभत्व इन ग्यारह विभागों द्वारा स्थितिबंध का विस्तार से विवेचन किया है। जो गाथा ३१ से प्रारम्भ होकर गाथा ६४ में पूर्ण हुआ है।
इसी प्रकार फिर अनुभागबंध का सादि-अनादि, स्वामित्व और अल्पवहुत्व इन तीन विभागों द्वारा अनुभाग बंध का वर्णन किया है। यह सब वर्णन ६५ से ७६ तक कुल वारह गाथाओं में है। - उक्त तीनों बंधों का वर्णन करने के बाद प्रदेशबंध का विचार प्रारम्भ किया है। इसके भाग-विभाग, सादि-अनादि और स्वामित्व प्ररूपणा यह तीन विभाग है । प्रत्येक विभाग में अपने अधिकृत विषय का सर्वांगीण विचार किया है । इसी प्रसंग में प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का वर्णन करके बंधविधि की प्ररूपणा समाप्त हुई। इसके पश्चात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से उदयविधि का. वर्णन किया है । इसी तरह सत्ताविधि का भी विचार किया है।
यह समस्त वर्णन १८५ गाथाओं में किया गया है । पाठकगण स्वयं अधिकार का अध्ययन करके कर्म सिद्धान्त को हृदयंगम करें, यह आकांक्षा है। खजांची मौहल्ला
-देवकुमार जैन बीकानेर, ३३४००१
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