Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 19
________________ हिंदी अनुवाद का निमित्त : सन् १९७१ में रवीनकुमार ने मेरी पलागि रेरणा के गोगका सवातिक प्रन्थ पढ़कर सोलापुर परीकालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करती । धनंतर मेरे से कई बार पाग्रह किया कि माताजी | माज कल समयसार मादि अध्यात्म ग्रन्प को परकर कुछ लोग एकांत से निश्चयामासी बन रहे हैं। इसलिये माप विद्यापियों को इन अन्यों का स्वाध्याय कराकर नय विवक्षा मच्छी तरह समझा दोषिये । मैंने भी समयानुसार इसे उचित समझकर इन सभी को पहले समयसार का स्वाध्याय कराया । साथ ही प्रालापपति भी पढ़ाई। इसके बाद क्रम में प्रवचनसार पंचास्तिकाय का भी स्वाध्याय पलाया। इन चन्यों के कई वार स्वाध्याय के बाद सन् १९७५ में हस्तिनापुर में नियमसार का स्वाध्याय शुरू किया। उस समय दो तरह की प्रतियां स्वाध्याय में रखी गई । एक प्रसि में तीसरी गाया को पढ़ते समय भयं भसंगत प्रतीत हा । वह गाथा वह है जियमेण य कम त णियमं गाणसणचरित । वियरीपपरिहरस्थं मणिवं खलु सामिविषयणं ।। ३ ।। इसका सरल अर्थ यह है कि-नियम मे जो करने योग्य है वह नियम है. बद्द भान दर्शन पारित्र है, विपरीस का परिहार करने के लिये इस में "सार" शब्द समाया है। अर्थात रत्नत्रयस्वरूप मोल मार्ग नियम" है इसमें विपरीत को दूर करने के लिये "सार" शब्द लगाकर "नियमसार" बना है। इसका प्रर्थ है सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित। वितु एक प्रति में टीका का अर्थ और टिप्पण कुछ अलग ही छपा है । वह यह है । प्रलोकार्य में विपरीत शहित का (विकल्प रहित) मयं किया है । और विपरीत णन्द के टिपणा में कहा है कि विपरीत-विराज । व्यवहाररलत्रयरूप विकल्पो को-पराश्रित भावों को-छोड़कर मात्र निर्विकल्प शानदर्शनचारित्रका ही-शुद्धरत्नत्रय का ही स्वीकार करने हेतु "निया" के साथ "मार" मान्द जोड़ा है।" यह अधं देखकर मैंने विचार किया कि जब स्वयं श्री मदददेव ने इसी नियममार ग्रन्थ में चौथे अध्याय तक व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन किया है पुनः उसी व्यवहाररत्नत्रय के परिहार के लिये "सार" शब्द जोड़ा है यह कैसे बनेगा; यह तो पूर्वापर विश्व दोष हो जायेगा। दूसरी बात यह है Fि म्वयं श्रीकुदकुददेव व्यवहाररत्नत्रय फो ग्रहण कर उसी के अनुमार प्रवृत्ति करते थे। वे भी अपने पाहार विहार, ग्रन्प रचना मौर तीर्थ यात्रा पादि कार्यों में मूलाचार के अनुसार ही चर्या करते थे । क्योंकि निपपरत्नत्रय व निग्मय प्रतिक्रमण, प्रत्यायाम, मावश्यक मादि क्रियायें तो ध्यानरूप ही मानी गई है। खो कि फवंचित् उनके घ्यानरूप सप्तमगुएडस्पान में संभव पी । अन्यरधना करना, उपदेश देना मादि कार्य भी तो व्यवहाररलय के अंतर्गत है न कि निश्चयरलत्रम के अंतर्गत ।

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