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महाबन्ध
में आबाधाकाण्डक का प्रमाण इसी विधि से प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्म में यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि वहाँ स्थितिबन्ध के अनुपात से आबाधा नहीं प्राप्त होती।
प्रश्न यह है कि जहाँ सागरों प्रमाण स्थितिबन्ध होता है, वहाँ तो इस अनुपात से आबाधाकाण्डक की उपलब्धि हो जाती है, पर जहाँ अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर की आबाधा भी अन्तुर्मुहूर्त कही है और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिबन्ध की आबाधा भी अन्तर्मुहूर्त कही है, वहाँ इस अनुपात से व्यवस्था कैसे बन सकती है?
यह प्रश्न वीरसेन स्वामी के सामने भी था। उन्होंने जीवस्थान-चूलिका में इस प्रश्न का समाधान किया है। वे लिखते हैं कि न्यून या जघन्य स्थितिबन्ध में आबाधाकाण्डक की जाति इससे भिन्न होती है, इसलिए वहाँ जो आबाधाकाण्डक हो उसका भाग देकर आबाधा ले आनी चाहिए। सब प्रकार के स्थितिबन्धों में आबाधाकाण्डक एक समान नहीं होता, किन्तु जहाँ संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहाँ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा से विवक्षित स्थिति के भाजित करने पर संख्यात समय मात्र आबाधा काण्डक उपलब्ध होता
है।
चौथे प्रकरण का नाम 'अल्पबहुत्व' है। इसमें सब जीवसमासों में जघन्य आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, उत्कृष्ट आबाधा, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, जघन्य स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्थान और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इन सबके अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है।
अल्पबहुत्व का विवेचन करने पर स्थितिबन्ध का सामान्य विवेचन पूरा होता है।
आगे पूर्व के विवेचन को अर्थपद मानकर निम्न अधिकारों द्वारा मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध के विचार करने की सूचना की गयी है। वे अधिकार ये हैं-अद्धाच्छेद, सर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, स्वामित्व, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्धसन्किर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व। इसके बाद भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसान-समुदाहार और जीवसमुदाहार इन प्रकरणों द्वारा भी मूलप्रकृति स्थितिबन्ध का विचार किया गया है। भुजगारबन्ध के १३ अनुयोगद्वार पदनिक्षेप के ३ अनुयोगद्वार, वृद्धिबन्ध के १३ अनुयोगद्वार और अध्यवसान-समुदाहार के ३ अनुयोगद्वार हैं। जीवसमुदाहार का अलग से कोई अनुयोगद्वार नहीं है।
इन अनुयोगद्वारों के जो नाम हैं, उन्हीं के अनुसार उनमें स्थितिबन्ध के आश्रय से विचार किया गया है। आगे उत्तरप्रकृति स्थितिबन्ध का विचार भी इसी प्रक्रिया से किया गया है। मात्र मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध में आठ मूल प्रकृतियों के आश्रय से विचार किया गया है और उत्तरप्रकृति-स्थितिबन्ध में १२० उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से विचार किया गया है। यद्यपि उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं, पर दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध-प्रकृतियाँ हैं और पाँच बन्धनों व पाँच संघातों का पाँच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है तथा स्पादिक के अवान्तर बीस भेदों के स्थान में स्पर्शादिक चार का ही ग्रहण किया गया है, इसलिए ८ प्रकृतियाँ कम होकर यहाँ कुल १२० प्रकृतियाँ ही ग्रहण ही गयी हैं।
स्थितिबन्ध के मुख्य भेद चार हैं, यह हम पहले कह आये हैं। स्थितिबन्ध का कारण कषाय है। कहा भी है-'ट्ठिदिअणुभागा कसायदो होंति।।
स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होता है।
आगम में कषाय के विविध भेदों की कषायाध्यवसान संज्ञा कही है। ये कषायाध्यवसान स्थान दो प्रकार के होते हैं-संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप। इन्हें ही संक्लेशस्थान और विशुद्विस्थान कहते हैं। असाता के बन्धयोग्य परिणामों की संक्लेश संज्ञा है और साता के बन्धयोग्य परिणामों की विशुद्धि संज्ञा है। ये दोनों प्रकार के परिणाम कषायस्वरूप होकर भी जाति की अपेक्षा अलग-अलग हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय सात में साता और असाता के बन्ध के कारणों का निर्देश करते हुए लिखा है
'दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेधस्य ॥११॥ भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥१२॥'
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