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म. श्रे.
खण्ड ४
* दाता । अनीती कियां दुःख पाता । ते सुणियो आगे भ्राता ॥ ढाल नवमी पूर्ण थाइ ।
अमोलख ऋषि एह गाइ ॥ सं ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ इणहीज नगरीने विषे । वैश्या , पाडा माय ॥ सब वैश्यामें शिरोमणी । कपट कलाए सवाय ॥ १॥ अनंगनी नामे यह ।। | वस्त्राभूषण रूप ॥ कला कौश्यल्यता ए करी । वश कीधा था भूप ॥ २॥ धन घणो EX| उपराजवा । रचियो एक प्रपंच ॥ दगाथी पासा रमण । ठगी करयो द्रव्य संच॥३॥R R| केइ धूर्त हरविया । जीती न सके कोय ॥ जे जे इण भवने चड्या । ते गया इज्जत खोय
॥ ४ ॥ डर्या कला जो एहनी । को इन आवे पाप्त ॥ इम घणा दिन वीतिया। आगे सुणो अरदास ॥५॥ॐ ॥ ढाल १० मी ॥ मांग २ वर मांगनी ॥ यह ॥ वैश्या संग निवारिये । जो चाहो सहु सुख हो ॥ जोइणरे फंदे पड्या । जोवो जिणरा || दुःख हो ॥ वै ॥ १॥ एकदा ते गुणचन्द्र जी । क्रीडा करवा काम हो ॥ आया गणिका मोहले । दीपंता रूप वाम हो ॥ वै ॥२॥ इणरा भवनके ढूंकडे । जाय ते चालंत हो ॥ ठगणी ए बोलाविया । मुख मटके मोहवंत हो ॥ वै ॥ ३ ॥ भोला ते समज्या नहीं। |पडिया इणरी फास हो ॥ मुनीम हटक्या अतिघणा । भूल्या तातनी भासहो ॥16 व वै ॥ ४ ॥ आपण आया कमाववा । नहीं फसवाने फंद हो ॥ जो इण रस्ते लागसो । | तो किम करस्यां धंद हो ॥ वै ॥ ५॥इम सुणी फिरवालाग्या । गणिका दिया चिडाय
PREROES
७.