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॥ पुण्य ॥ ४५ ॥ पंचान्द्री सुख भोगवेरे । मदनका पुन्य प्रकाश हो ॥म ॥ पुण्य ॥ ४६॥ ढाल दश पंचम खंडकीरे । ऋषि अमोलख गाय हो । म ॥ पुण्य ॥ ४७ ॥॥ दोहा ॥ एकदा निशिमें मदनकी । निद्रा व्यतिक्रांत थाय ॥ कुटंब जागरणां जागता । वीतक यादज आय ॥१॥ एक पूनम वीती गई ॥ बीजी आई चाल | जिण कामे, हूं निकलियो । तेहनो नहीं कियो ख्याल ॥२॥ अब प्रमाद तजी करी । बचन पाड12 वो पार ॥ पुर पयठाण रायपुत्रीका । पहोंचावी तस द्वार ॥३॥ जोगी की कृपा थकी। सत्प बड कूपको तोय ॥ लेजावू वनदेवले । जहां लग पूनम होय ॥ ४ ॥ प्रात थी आरंभ भो । तब वक्ते होवे काम ॥ इत्यादी विचारमें । बीती रात तमाम ॥ ५॥ * ॥ ढाल ११ मी ॥ पद्म प्रभु पावन नाम तुमारो ॥ यह ॥ प्राते मदन कहे त्रियाने, रह जो सुख मझारो ॥ कार्य कोह निज देशे जाउ । पाछो आस्यु थोडे कालो ॥ देखोरे | भाइ मदन पुण्य भल कारो । होवे दिन २ तेज बधारो ॥ देखो ॥ आं॥१॥ सा कहे
हूं जावा किम देस्यूं । कार्य किस्यो सो उचारो । पधारसो तो साथे चालस्यूं। निश्चय मुज | विचारो॥ दे॥२॥ मदन कहे इम हट नहीं करनो । अवसर उचित विचारो | मै आयो | कोई कामके काजे । विच मिल्यो जोग तुमारो ॥ देखो ॥ ३ ॥ दिवस बहु लोभायो तुम थे । हिवे मन उचक्यो म्हारो ॥ कार्य सिद्ध थयां होसी । हटक माय मत डारो दे ॥ ४ ॥