________________
वली तुम आचार, धर्म किस्यो बहो ॥ चाल ॥ बहो धर्म प्रकाशियो तब तेकहे उत्तम || हमे ॥ अमर सौभाग्य, श्रृंगार नित्य नव । भोग अभिनव नर रमे ॥ मोटा पुण्य छ ।
| थायरा, जेहथी हमारे कर चडी ॥ सुणी वयण इम तेहना । हूंतो सोग सागरच में पडी ॥ १५ ॥ नहीं आयूं हूं, घर कदी थायरे ॥ अति निंदक कर्म, न चाहिये माहेरे ॥
॥ चाल ॥ माहारे ए सुख नाहीं चहिये । ए थी तो मरणो भलो ॥ इम कही हूं बैठी रोती * कहे बेगी चलो ॥ कर धरी तब खेंची मुजने । मर्या पशु ज्यूं बजारमें ॥ जोवो कर्म | विटंबणा । मैं इम पडी दुःख धारमें ॥ १६ ॥ मैं मन समर्यो जी, तब नवकारने ॥ जो निर्मळ शील, तो करो सारने ॥ चाल ॥ सार करो सासण सूरी । इम चिंतवतां सहायक
भया ॥ अनेक सांप पिच्छ्हुइ, मुज चौपखे घेरी रह्या ॥ मरण धारी डरी नहीं मैं। वैस्या * सहू अलगी रही ॥ जोकर फरयो माहारो ॥ तस सांप विच्छू डंक दह ॥ १७ ॥ ब्यापी K झणणाट, सहु वैश्या तने ॥ जीव ले भागी आश्चर्य धरी मने ॥ चाल ॥ आश्चर्य पा लोक |
जो तमाशो। हांसी करे तिणरी घणी ॥ तेतले ए सेठ आइ । शुद्धी पूछी हमतणी ॥ वाह ||
चल घर माहेरे । हूं राखस्यूं बेटी करी ॥ जैन धर्मी श्रावक डूं हूं । करस्यूं भक्ती सक्ते में *सरी ॥ १८ ॥ मैं सुण हर्षी जी। यां साथे थह ॥ करूं धर्म पुण्य, मै इण घरमें रही ॥
चाल ॥ रही घर में हूं तो मुखथी। सहाज दियो मुजने घणो ॥ सर्व तरह नो मुख पाइ ।।