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वाट ॥ देव पेखणरी हूंश घणी मन । आवसे किसडे घाट | म ॥ १७ ॥ मदन जी बैठा रायभवन के । मुख्य दरबजे मांय ॥ ते पण मार्ग जोवे यक्षको । अंगज किणविध लाय ॥ ॥ म ॥ १८ ॥ जोगी यक्षकी सेजे सूता । करता योग विचार || इम तीनों तीन स्थाने रहिया । साहसवंत शिरदार | म ॥ १९ ॥ तीनों निडर निश्चित तीनों । तीनों छे पुण्यवंत ॥ पर उपकारकी दृष्टी राखी । काज करे घर खंत ॥ म ॥ २० ॥ हिवे किम देवता वश थावे । ते सुणियो चितलाय ॥ पांचम खंडकी ढाल तीसरी । ऋषि अमोलख गाय ॥ म ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥ दिनकर पहोंचा पश्चिमें || दिशा हुई तब लाल । गजौरव वनमें हुयो । शब्द महाविक्राल ॥ १ ॥ गूंज्यो वन शिखरी गिरी | पाया प्राणी त्रास || केताइ पर भव गया । के ताइ गया नाश ॥ २ ॥ धरा धर २ थर हरे । ज्वाला गगने जाय । जाणे महाप्रलय थह । विश्व भणी गट काय ॥ ३ ॥ अंगज देख चरित्र यह ॥ सावध हुयो तत्काल || जाण्यो आगम यक्ष को । जेहनी थी मन माल ॥ ४ ॥ जोवे दृष्टि पसारके । दशो दिशा ते वार ॥ किण दिशथी | ते आवह || करूं जाइ सत्कार ॥ ५ ॥ ४ ॥ ढाल ४ थी ॥ श्रावक श्री वीरना चंपाना वासी जी ॥ यह ॥ दुसेि दूर थी आवतोजी । जाणे मोहोटो पहाड ॥ कृष्णवदन आभा समो । धमका थी पूरे खाड ॥ भविकजन सांभलोजी । साहसवंत कुँवार ॥ अं ॥
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