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म. श्रे.
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रखाकाशमें
常常带常常形;
॥ दोहा ॥ अरिहंत सिद्ध आचार्यजी। उपाध्याय अणगार ॥ प्रारंभता खन्ड पांचमो ,
खण्ड ५ । करूं पंचने नमस्कार , १ ॥ मदन चरी छे रस भारी । करी मन हुल्लास ॥ नवल विनो। दे ऊमरी । प्रगटे गुणकी रास ॥ २ ॥ अनेक गुणके आगले । साहस पण कहवाय ॥ वीर्यात्म प्रबलता । तस दुःख कोण कराय ॥ ३ ॥ विकट दुष्कर काम जे । साहस थी सिद्ध होय ॥ देवदिक सेवे सदा । ते सुण जो सहु कोय ॥ ४॥ चंगला नगरीने विषे।
रहे सुखे तिहुं जन ॥ नव २ कौतिक देखवाकर नित्य पुरमें गमन ॥५॥ एकदा फिरतां | *पुर विषे । सुण्यो घुघर घमकार । जोवे अंतःरिक्षने विषे । ऊभा रही ते बार ॥ ६ ॥ पंचरंग प्रकाश तो । जाणे द्वितीय सूर ॥ आइ स्थंभ्यो तिणपरे । जोवे ते हर्षित नूर ॥
७॥ तिण माहें थी उतर्यो । नर नारीनो जोड ॥ वस्त्र भूषण बहु मोलका । दिव्य श्वरूप | अखोड ॥ ८॥ प्रणमें पद आ मदनना । प्रेमातुर ते वार ॥ जोगी अंगज देखने । आश्चर्य || | पाया अपार ॥ ९॥ ॥ ढाल १ ली ॥ चंपा नगर निरोपम सुन्दर ॥ यह ॥ खेचर नमी
मदनने पाया । कर जोडी ऊभा रहाइ ॥ वहाबा मदनजी दगो इम देवो । आपने जुगतो E नाहीं हो ॥ वहाला ॥ मदनजी पुण्यका दरिया । घणा गुणा करी भरियारे ॥ वहाला ॥
मदन ॥ आं॥१॥ आप वयण हम शिरपे चहाया । निशी में नगर वसासी । आप हुकम हम वनमें पहुंचा। पूर्ण करवा आंसी हो ॥ वहाल ॥ मदन ॥ २॥ दूजे दिन सत||२ बाशा