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क्रियाकोष
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मुहुरो आफू आदिक और खाए प्राण तजै तिहि ठौर । fafe आहार कर जो मर जाय, सोऊ विषदूषण को थाय ||१०|| २ आमिष महापापको मूर, जीवघाततें उपजै क्रूर । मन वच काय तजै इह सदा, सुरशिवसुख पावै जिन वदा ॥ ९१ ॥
मधु माखी उच्छिष्ट अपार, जीव अनंत तास निरधार । ताको खावैं धीवर भील, सोई हीन नर पाप कुशील ॥९२॥
संत पुरुष नहि भीटीं ताहि, एक कणातें धरम नसाहि । लूण्यों दोष महा अधिकार, ताहि भरौं नहि भवि सुखकार || ९३ ॥ मदिरापान किये बेहाल, मात भगनि तिय सम तिहि काल । मादक वस्तु भांगि दे आदि, खात जमारो ताको वादि || ९४ ॥
फल अति तुच्छ दन्त तलि देय, ताको दूषण अधिक कहेय । पालो राति जमावे कोय, अरु ताको खावे बुधि खोय ॥९५॥ ताप अधिक त्रस जीव, भविजन छांडों ताहि सदीव । केला आम पालमें देह, नींबू आदिक फल गनि लेह ॥९६॥
आहारके करनेसे जीव मर जाता है उस आहारमें विषका दोष लगता है ॥ ९०॥ मांस महान पापका मूल कारण है क्योंकि वह जीवघातसे ही उत्पन्न होता है । जो जीव मन, वचन, कायसे इसका त्याग करते हैं, वे स्वर्ग और मोक्षके सुखको पाते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है || ९१ || मधु (शहद) मक्खियोंका उच्छिष्ट है । यह निश्चित है कि उसमें अनन्त जीव उत्पन्न होते रहते हैं । उसे धीवर तथा भील आदि हीन - पापी जीव ही खाते हैं । सज्जन पुरुष तो उसका स्पर्श भी नहीं करते हैं । उसका एक कण खानेसे धर्म नष्ट हो जाता है। लुण्या ( नवनीत - नैनूं) में महान दोष है अतः सुखके इच्छुक भव्य जीव उसे नहीं खाते हैं ।। ९२-९३॥
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मदिरा पान करनेसे जीव बेखबर हो जाता है वह उस समय माता, बहिन और स्त्रीको समान मानने लगता है । मदिराके सिवाय भांग आदि मादक वस्तुओंको जो खाता है उसका जन्म भी व्यर्थ ही जाता है अर्थात् उस जन्मसे वह आत्मकल्याणका कोई काम नहीं कर पाता ।। ९४ ।। जो मनुष्य अत्यन्त तुच्छ फलको दांतोंके नीचे दबाता है अर्थात् खाता है उसे भी अधिक दोष लगता है । जिस फलके अवयव - रेखा आदिका विकास नहीं हुआ है वह तुच्छ फल कहलाता है । कोई बुद्धिहीन मनुष्य रातमें बर्फ जमा कर खाते हैं उसमें अधिक नस जीव उत्पन्न होते हैं इसलिये हे भव्यजनों ! उसका सदा त्याग करो । केला, आम तथा नींबू आदिक जो फल
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१ महुडो अफीम ख० महूरो आफू न० स० २ विकलत्रय पंचेन्द्रिय जान, मुए कलेवर मांस बखान । त्रिविध तजै भविजन यह सदा ३ शूद्र हीन नर पाप कुशील न०
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