________________
१२४
श्री कवि किशनसिंह विरचित
सुणिये श्रेणिक भूपाल, दरसण प्रतिमान विशाल । तिह बिनु दस प्रतिमा जाणी, निरफल भाषी जिनवाणी ॥७७६॥ वासनकी बोलि करीजै, उपरा उपरी जु धरीजै । नीचे हुई जरजर वासन, उपले भाजनकी आसन ॥७७७॥ सब फूटि जाय छिनमांही, समरथ बिन 'कवन रखांही । प्रथमहि दरशन दिढ कीजै, पी, व्रत और धरीजै ॥७७८॥ एकादश प्रतिमा सारी, ताकी गति सुनि सुखकारी । जावै षोडशमें स्वर्ग, भव दुइ तिहुं लहि अपवर्ग ॥७७९॥ दशमी प्रतिमाको धारी, क्षुल्लक अरु अयल विचारी ।। उतकिष्ट सरावक एह, भाषै जिनमारग तेह ॥७८०॥
दोहा प्रतिमा ग्याराको कथन, जिन आगम परमाण । परिपूरण कीनौं सबै, किसनसिंघ हित जाण ॥७८१॥
दानाधिकार वर्णन
दोहा . आहार औषध अभय फुनि, शास्त्रदान ए चार ।
श्रावकजन निति दीजिये, पात्र कुपात्र विचार ॥७८२॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक महाराज ! सुनो, इन प्रतिमाओंमें दर्शन प्रतिमा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके बिना शेष दशों प्रतिमाएँ निष्फल हैं, ऐसा जिनागममें कहा है। यहाँ वासनों-बर्तनोंका दृष्टान्त लीजिये। एकके ऊपर एक बर्तन रखिये। यदि नीचेका बर्तन जर्जरित है और ऊपरका बर्तन भारी है तो सब बर्तन एक क्षणमें फूट जाते हैं क्योंकि सुदृढ़ बर्तनके बिना उन्हें कौन संभाल सकता है ? प्रकृतमें दार्टान्त यह है कि पहले सम्यग्दर्शनको धारण करना चाहिये पश्चात् अन्य व्रत लेना चाहिये ॥७७६-७७८॥
ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक उत्कृष्ट श्रावक मर कर कहाँ जाता है ? इसकी सुखदायक गति सुनो। यह सोलहवें स्वर्गमें जाता है और मनुष्यके दो तीन भव धारणकर अपवर्ग अर्थात् मोक्षको प्राप्त होता है। दसवीं प्रतिमाको धारण करनेवाले तथा क्षुल्लक और एलक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं, ऐसा जिनमार्गमें कहा गया है ॥७७९-७८०॥ ग्रन्थकर्ता श्री किशनसिंह कहते हैं कि इस प्रकार हमने हित जानकर ग्यारह प्रतिमाओंका कथन पूर्ण किया है ॥७८१।।
दानाधिकार वर्णन आहार, औषध, अभय और शास्त्रके भेदसे दान चार प्रकारका है। हे श्रावकजनों ! पात्र १ कौन न०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org