Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 317
________________ श्री कवि किशनसिंह विरचित तजै चकार मकार विचार, वरष एक मांहे नव बार । करै वरष नवलों निरधार, उजुमण करो सकति संभार ।। १८०९ ॥ उत्तम प्रोषधकी विधि जाण, आमिल दूजी जगत बखाण । तृतीय प्रकार को इक ठान, एक भुक्ति विधि चौथी जान || १८१०॥ संयमशील सहित निरधार, वरष जु नवको इह विसतार । वरष एकमें कीयो चहैं, दीत आठ चालीस जु गहै ॥ १८११ ॥ विधि वाही चहु बार बखाण, पार्श्वनाथ जिनपूजा ठाण । कीजे उद्यापन चहु सार, पीछै तजिये व्रत निरधार ॥ १८१२॥ उद्यापनकी शक्ति न होय, दूणो व्रत करिये भवि लोय । सेठ नाम मतिसागर जाण, त्रिया गुणवती जास बखाण ॥ १८१३ ॥ तिह इह व्रतको फल पाइयौं, विधितै कथामांहि गाइयौं । इह जाणी कर भविजन करौं, व्रत फल तै शिवतियकू वरो ॥ १८१४॥ कर्मचूर व्रत चौपाई कर्मचूर व्रतकी विधि एह, आठ भांति भाषत हों जेह । आठै आठ भांति जो करै, चौसठि आठे पूरां परै ॥ १८१५॥ यह व्रत नौ वर्ष तक किया जाता है । व्रत पूर्ण होने पर शक्तिके अनुसार उसका उद्यापन करना चाहिये ।। १८०८-१८०९ ।। व्रतकी उत्तम विधि यह है कि व्रतके दिनोंमें उपवास किया जाय, द्वितीय विधि अलाहारकी है, तृतीय विधि एकठाणाकी है अर्थात् एक बार थालीमें जो आ जाय उतना ही ग्रहण किया जाय और चौथी विधि एकाशन करनेकी है || १८१०|| संयम और शील सहित व्रतका पालन करना चाहिये । यह नौ वर्षमें किये जानेवाले व्रतका विस्तार है । यदि कोई एक वर्षमें ही व्रत करना चाहे तो एक वर्षमें अड़तालीस रविवारोंका व्रत करे । इसकी विधि भी ऊपर कहे अनुसार चार प्रकारकी है । व्रतके दिनोंमें पार्श्वनाथ भगवानकी पूजा करना चाहिये । पश्चात् उद्यापन कर व्रतका समापन करना चाहिये । यदि उद्यापनकी शक्ति न हो तो व्रतको दूना करना चाहिये। मतिसागर नामक सेठ और उनकी गुणवती स्त्रीने यह व्रत कर उसका फल प्राप्त किया था ऐसा रविव्रत कथा में कहा गया है । ग्रन्थकार कहते हैं कि हे भव्यजनों! ऐसा जानकर इस व्रतको करो और उसके फलस्वरूप मुक्ति रमाका वरण करो ।। १८११-१८१४ ।। कर्मचूर व्रत अब कर्मचूर व्रतकी विधि आठ प्रकारसे कहते हैं । इस व्रतमें आठ अष्टमी आठ आठ प्रकारसे की जाती है। सब मिलाकर चौसठ अष्टमियोंमें यह व्रत पूरा होता है । पहले आठ अष्टमियोंमें प्रोषध उपवास करे, फिर आठ अष्टमियोंमें एकठाणा करे अर्थात् एक बार जो 1 २९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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