Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 318
________________ क्रियाकोष प्रोषध आठ करै विधि सार, इकठाणा वसु एक ही बार । एक गास ले इक दिन मांहि, आठहि नयैड करे सक नाहि ॥१८१६॥ करहि इक फल्यो हरित तजेय, सीत दिवस तन्दुल इक लेय । लाडू तिथि इक लाडू खाय, कांजी आठ करे सुखदाय || १८१७|| दोहा वरष दोय वसु मासमें, व्रत पूरो है एह । शील सहित व्रत कीजिये, दायक सुर शिवगेह ॥ १८१८ ॥ अनस्तमित व्रत चौपाई अनस्तमित व्रत विधि इम पाल, घटिका दुय रवि अथवत टालि । दिवस उदय घटिका दुय चढै, तजि आहार चहु विधि व्रत बढै ॥ १८१९ ॥ याकी कथा विशेष विचार, भाषी त्रेपन क्रिया मझार । याते कही नहीं इह ठाम, निसिभोजन तजिये 'अविराम ॥ १८२०॥ पंचकल्याणक व्रत दोहा व्रत कल्याणक पंचकी, प्रोषध तिथि विधि जाण । आचारज गुणभद्रकृत, उत्तर पुराण प्रमाण || १८२१ ॥ २९१ परोसा जाय उतना ही ग्रहण करे, फिर आठ अष्टमियोंमें एक एक ग्रास ले, पश्चात् आठ अष्टमियोंमें ऊनोदर करे, तदनन्तर आठ अष्टमियोंमें हरित वनस्पतिका त्याग कर कोई एक फल ले, फिर आठ अष्टमियोंमें केवल चावलका आहार ले, तदनन्तर आठ अष्टमियोंमें एक लाडूका आहार ले, और उसके बाद आठ अष्टमियोंमें कांजीका आहार करे । इस तरह यह व्रत दो वर्ष आठ माह पूर्ण होता है । शील सहित इस व्रतका पालन करना चाहिये । यह व्रत देवगति और मोक्ष संबंधी सुखोंका घर है ।। १८१५-१८१८ । अनस्तमित व्रत अनस्तमित व्रतकी विधिका इस प्रकार पालन करना चाहिये । सूर्यास्त होनेके दो घड़ी पहलेसे सूर्योदय होनेके दो घड़ी बाद तक चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेसे यह व्रत वृद्धिको प्राप्त होता है । इस व्रतकी विशेष कथा त्रेपन क्रियाओंके वर्णनमें कही जा चुकी है । इसलिये यहाँ नहीं कही गई है । सार यह है कि रात्रिभोजनका निरंतर त्याग करना चाहिये ।।१८१९-१८२०।। Jain Education International पंच कल्याणक व्रत पंच कल्याणक व्रतके प्रोषधोंकी तिथियोंका निर्णय गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराणके १ असन पानि एकठा लेय, दूजी बेर नहीं जल ग्रेह । न० स० २ अभिराम ग० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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