Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 341
________________ ३१४ श्री कवि किशनसिंह विरचित सवैया तेईसा छन्द कहे इह ग्रंथ मझार लिये गनि जे उक्तं च धराई, दो हजार मही लखि घाट पच्यासिय एह प्रमान कराई । जो न मिले तुक अक्षर मात कहै पुनरुक्त न दोष ठराहीं, तो मुझको लखि दीन प्रवीन हंसो मति मैं तुम पाय पराहीं ॥१९३१॥ ग्रंथ लिखै इह लेखकको यह है मरयाद सिलोक किती है, छन्दनिके सब अक्षर जोरि रुप ध्वनि अंक जु मांधि तिठी है । ते सब वर्ण बत्तीस प्रमाण श्लोकनिकी गणती जु इती है, दो हजार परी नवसे लखि लेहु जिके भवि शुद्धमती है || १९३२॥ छप्पय छंद मंगल श्री अरिहंत सिद्ध मंगल सिव-दायक, आचारज उवझाय साधु गुरु मंगल- लायक; मंगल जिनमुख खरी दिव्य धुनिमय जिनवाणी, मंगल श्रावक नित्य समकिती मंगल जानी, मंगल जु ग्रन्थ इह जानियो, वक्ता - मुख मंगल सदा । श्रोता जु सुनै निज गुण मुनै, मंगलकर तिनको सदा || १९३३॥ इस ग्रन्थमें जो छन्द आये हैं उनकी गणना ऊपर कही गई है। इसी तरह 'उक्तंच' द्वारा जो उद्धृत किये गये हैं उनका प्रमाण भी बताया गया है । सब छन्दोंका प्रमाण पचासी कम दो हजार अर्थात् १९१५ है । यदि कहीं तुक ( अन्यानुप्रास) न मिलती हो, अक्षर और मात्राओंकी कमी हो, और कथन करनेमें पुनरुक्त दोष दूर न होता हो अर्थात् पुनरुक्ति होती हो तो चतुर जन मुझे दीन देखकर हँसे नहीं, मैं उन ज्ञानीजनोंके चरणोंमें पड़ता हूँ || १९३१|| यदि कोई लेखक इस ग्रंथकी प्रतिलिपि करे तो ग्रन्थका परिमाण जाननेकी विधि यह है कि सब छन्दोंके अक्षर जोड़कर जितना प्रमाण हो उसमें श्लोक - अनुष्टुप छन्दके ३२ अक्षरोंका भाग देनेसे पूर्ण ग्रन्थके श्लोकोंका प्रमाण निकलता है, वह प्रमाण दो हजार नौ सौ होता है ।। १९३२ ।। श्री अरहंत भगवान् मंगलस्वरूप है, मोक्षदायक सिद्ध परमेष्ठी मंगलस्वरूप है, आचार्य, उपाध्याय और साधु मंगलरूप है, जिनेन्द्र भगवानके मुखसे खिरी हुई दिव्यध्वनिरूप जिनवाणी मंगलरूप है, श्रावक तथा सम्यक्त्वके धारक पुरुष मंगलरूप है । यह ग्रंथ स्वयं मंगलरूप है । जो वक्ता अपने मुखसे इस ग्रंथका व्याख्यान करे तथा जो श्रोता इसका श्रवण करे उसके लिये ये सब मंगलकारी होवें ॥१९३३॥ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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