Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 342
________________ क्रियाकोष ३१५ दोहा किसनसिंह कवि वीनती, जिन श्रुत गुरुसों एह । मंगल निज तन सुपद लखि, मुझहि मोक्षपद देह ॥१९३४॥ चौपाई जबलों धर्म जिनेश्वर सार, जगतमांहि वरतै सुखकार । तबलों विस्तारो यह ग्रंथ, भविजन सुर-शिव-दायक पंथ ॥१९३५॥ ॥ भद्रं भूयात् ॥ किशनसिंह कहते हैं कि मेरी यही विनती है कि जिन देव, शास्त्र तथा गुरु स्वयं मंगलरूप हैं वे अपने मंगलमय पदका विचार कर मुझे मोक्षपद प्रदान करें ॥१९३४।। जब तक जगतमें जिनेन्द्रदेव प्रतिपादित श्रेष्ठ धर्म सुशोभित रहे तब तक भव्यजनोंको मोक्षसुख देनेवाला यह ग्रंथ विस्तारको प्राप्त होता रहे ॥१९३५।। इस प्रकार कविवार किशनसिंह विरचित क्रियाकोष ग्रन्थका पन्नालाल साहित्याचार्य विरचित हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ। श्रावण वदी ३, वि.सं.२०३८ (जका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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