Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 336
________________ क्रियाकोष छप्पय क्रियाकोस यह कथा सुनहु भवि मन वच तन करि, मरम तासु चित आनि भाव धरि क्रिया चलन परि; जे व्रतधारी पुरुष जगत सुख भजि सिव पावे, क्रियाहीन अव्रती भटकि दुरगति हि सिधावे; यह जानि सुखद भजि दुखद तजि कथा भविकजनको सरन । वकता वखानि श्रोता सुनौ सकल संघ मंगल करन ॥ १९११॥ कुण्डलिया छन्द इन्द्रिन केरे लोलपी, कथन क्रिया सुनि भेद, पाप धर्म नहीं ठीक कछु, मनमें पावे खेद; मनमें पावे खेद चित्त अदयामय झूठ अदत्त कुसील संग नहि छोडे बहु आरंभ अपार संघ छूटे जो त्रये जगतके मांहि लोलपी इन्द्रिन अघटारन जे भविकजन, इन्द्रिय करत निरोध, कथा सुनत मन वचन तन, उर उपजावै बोध; ३०९ Jain Education International हे भव्यजीवों ! क्रियाकोषकी यह कथा मन वचन कायसे सुनो, और उसके मर्मको हृदयमें लाकर भावपूर्वक क्रिया पर चलनेमें तत्पर होओ। जो पुरुष व्रत धारण करते हैं वे संसारसुखको प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और क्रियाहीन अव्रती मनुष्य दुर्गतियोंमें भटकते हैं । इसलिये वक्ता - पण्डित जन, सकल संघका मंगल करनेवाली तथा भव्यजीवोंको शरणरूप इस कथाका व्याख्यान करें और श्रोतागण इसका श्रवण करे ॥ १९११ ॥ जाको, ताको । अनेरो, केरो ॥ १९१२॥ जो इंद्रिय विषयोंके लोभी मनुष्य हैं उनकी क्रियाका भेद सुनों । उन्हें क्या पाप है ? और क्या धर्म है ? इसका कुछ निर्णय नहीं होता । क्रियाकी बात सुनकर वे मनमें खेदको प्राप्त होते हैं । उनका चित्त दयासे रहित होता है, वे असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह पापको नहीं छोड़ते हैं, बहुत भारी आरंभ करते हैं तथा संघको छोड़ दूर दूर रहते हैं इस प्रकार इंद्रियलोलुप-इंद्रिय विषयोंके लोभी मनुष्योंकी तीनों लोकोंमें प्रवृत्ति होती है ॥१९१२॥ इनके विपरीत पापको दूर करनेवाले जो भव्य पुरुष इन्द्रिय विषयोंका निरोध करते हैं, मन वचन कायसे कथाको सुनकर हृदयमें ज्ञानको उत्पन्न करते हैं, क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग करते हैं, दयाधर्मको धारण करते हैं, सत्य बोलते हैं, चोरीका त्याग करते हैं, शीलको For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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