Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 338
________________ क्रियाकोष दोहा माथुर राय वसन्तको, जाने सकल जहान । तसु प्रधान सुतको तनुज, किसनसिंह मतिमान ॥१९१६॥ अडिल्ल क्षेत्र विपाकी कर्म उदै जब आइयो, निजपुर तजिकै सांगानेर बसाइयो । तह जिन धर्म प्रसाद गनै दिन सुख लही, साधरमी जन सजन मान दे हित गही ॥ १९१७॥ दोहा इह विचार मन आनियो, क्रिया कथन विधि सार । होय चौपई बंध तो, सब जनकूं उपगार ॥१९१८॥ सब ही जन वांचौ पढौ, सुणौ सकल नर नार । सुखदाई मन आणिये, चलौ क्रिया अनुसार ॥ १९१९ ॥ छन्द चाल व्याकरण न कबही देख्यो, छन्द न नजरां अवलेख्यो । लघु दीरघ वरण न जाणूं, पद मात्रा हूं न पिछाणूं ॥। १९२०॥ मति हीन तहां अधिकाई, पटुता कबहू नहि पाई । मनमांही बोहि आई, त्रेपन किरिया सुखदाई ॥१९२१॥ ३११ उनके बड़े पुत्र का नाम सिंघही कल्याणदास था । किशनसिंह इन्हींके पौत्र थे || १९१६ || ग्रंथकर्ता किशनसिंह कहते हैं कि जब क्षेत्र विपाकी कर्म उदय आया तब अपना नगर छोड़ मैं सांगानेर में रहने लगा । यहाँ जिनधर्मके प्रसादसे दिन सुखसे व्यतीत होने लगे । साधर्मीजनोंने सन्मान देकर बड़े सन्मानसे मुझे अपनाया ॥१९१७॥ Jain Education International वहाँ रहते हुए मेरे मनमें विचार आया कि यदि क्रियाकी विधिको चौपाई बद्ध ( छंदोबद्ध) रचा जाय तो उससे सब लोगोंका उपकार होगा । इसी भावनासे यह ग्रंथ रचा गया है कि इसे समस्त नरनारी बाँचे, पढें, सुनें, मनमें विचार करें तथा क्रियाके अनुसार चलें ॥। १९१८ १९१९॥ मैंने कभी व्याकरण नहीं देखा है, छन्दों पर भी दृष्टि नहीं डाली है, मैं लघु और दीर्घ वर्णको नहीं जानता हूँ, मात्राओंको भी नहीं पहिचानता हूँ । अत्यधिक मतिहीन हूँ और कविता करनेकी सामर्थ्य मुझे प्राप्त नहीं हैं फिर भी मनमें विचार आया कि त्रेपन क्रियाओंकी सुखदायक कथा रचूँ ।।१९२०-१९२१।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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