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श्री कवि किशनसिंह विरचित खोडो दुऊ पायन पांगलौ, कुबजक गूंगौ वचन तोतलौं । जाकै मेद गांठि तनि घणी, ताकौं पूजा करत न बणी ॥१४६५॥ कच्छ दाद पुनि कोडी होइ, दाग सुपेद शरीरहि जोय । मंडल फोडा घाव अदीठ, अर जाकी बांकी लै पीठ ॥१४६६॥ गोसो बधै आंत नीकलै, ताकौ पूजा विधि नहि पलै । होइ भगंदर कानि न सुणै, सून्य पिण्ड गहलो वच सुणै ॥१४६७॥ खांसी ऊर्ध्वश्वास है जास, खिरै नासिका श्लेषम तास । महा सुस्त चाल्यौं नहि जाय, पूजा तिनहि जोग नहि थाय ॥१४६८॥ द्यूत विसन जाकै अधिकार, अर आमिष-लंपट चंडार । सुरा-पानते कबहु न हटै, सो पापी पूजा नहि घटै।।१४६९॥ वेश्या रमहै लगनि लगाय, अवर अहेडी सौं न अघाय । चोरी करै रमै पर-नारि, 'पूजा जोगि नहीं हिय धारि ॥१४७०॥
दोहा *इत्यादिक पापी जिते, तिनकौ नरक नजीक ।
वह पूजा कैसे करे, पुरी कुगतिकी लीक ॥१४७१॥ जो दोनों पैरोंसे पंगु हो, कुबड़ा हो, गूंगा हो, वचनोंका तोतला हो और जिसके शरीरमें चर्बीकी बड़ी गाँठ उभर आई हो, अर्थात् कंठमाल हो गयी हो उसे पूजा करना योग्य नहीं है ॥१४६५॥ जिसे खाज हो, दाद हो, कोढ़ हो, शरीर पर सफेद दाग हो, जो शरीरका अत्यधिक मोटा हो, जिसके शरीरमें ऐसा फोड़ा हो जिसका घाव दिखाई नहीं देता हो, जिसकी पीठ टेढ़ी हो गई हो, जिसके गोसो (?) बढ़ गया हो और आंत निकली हो उससे पूजाकी विधि नहीं पलती, अर्थात् वह पूजाका अधिकारी नहीं है। जिसे भगंदर हो, जो कानोंसे नहीं सुनता हो, जिसके शरीरमें शून्य मांसपिण्ड (कण्ठमाल आदि) निकल आये हो, जो पिशाचग्रस्तके समान वचन सुनता हो, जिसे खांसीका रोग हो, जिसकी ऊर्ध्वधास चलती हो, जिसकी नाकसे पानी या नासामल निकलता हो और जो महासुस्त हो अर्थात् चलाने पर भी नहीं चलता हो, वह जिनपूजाके योग्य नहीं है ॥१४६६-१४६८॥ जो जुआ खेलता हो, मांस सेवन करता हो, और मदिरापानसे कभी दूर नहीं हटता हो, वह पापी पूजाके योग्य नहीं है ।।१४६९॥ जो आसक्तिपूर्वक वेश्याका सेवन करता हो, शिकार खेलता हुआ कभी तृप्त नहीं होता हो, चोरी करता हो,
और परस्त्रीसे रमण करता हो, वह जिनपूजाके योग्य नहीं है, ऐसा हृदयमें विचार रखना चाहिये ॥१४७०॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि इन्हें आदि लेकर जितने पापी जीव हैं उन सबके लिये नरक निकट है वे जिनपूजा कैसे कर सकते हैं ? उनकी कुगतिका मार्ग पूर्ण हो रहा है ।।१४७१॥
१ परै कुगतिकी लीक विचार ग० * यह दोहा क० ख० और ग० प्रतियोंमें नहीं है।
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