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श्री कवि किशनसिंह विरचित
सकति नहीं उद्यापन तणी, करै दुगुण व्रत श्री जिन भणी । दश लक्षण याही परकार, उत्कृष्टो दश वास हि धार ।। १५८४ ॥ दूजी विधि छह वासह तणी, करै इकंतर भाष्यौ गणी । मरजादा दश वरष हि जान, वरष मध्य तिहुँ बारहि ठान ।। १५८५ ॥ अवर सकल विधि करिहै जिती, संवर माहि जानिये तिती । रत्नत्रयकी विधि ए सही, वरष मध्य तिहुँ बारहि कही ॥१५८६॥ भादौ माघ चैत पखि सेत, बारसि करि एकान्त सुहेत । पोसह सकति प्रमाण जु धरै, अति उच्छाहतै तेलो करै ।। १५८७ || पडिवा दिन करिहै एकन्त, पंच दिवस धरि सील महंत | वरस तीन मरयादा गहै, उद्यापन करि पुनि निरवहै ॥। १५८८॥ सकति-हीन जो नर तिय होय, संवर दिवस न छांडै सोय । जाको फल पायो सो भणौ, नृप वैश्रवण विदेहा तणौ ।। १५८९॥ मल्लिनाथ तीर्थङ्कर होय, ताके पद पूजित तिहुँ लोय । बाल ब्रह्मचारी तप कियो, केवल पाय मुकति पद लियो । १५९० ॥
यदि उद्यापन करनेकी शक्ति नहीं है तो व्रतको दूना करे, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है । इसी प्रकार दशलक्षण व्रत करना चाहिये । इसकी उत्कृष्ट विधि यह है कि दश उपवास करे । दूसरी विधि यह है कि छह उपवास और अन्तरालमें चार एकाशन करे अर्थात् ५, ७, ९, ११, १३ और १४ तिथिको उपवास करे और ६, ८, १० और १२ तिथिको एकाशन करे, ऐसा गणधरदेवने कहा है। इसकी मर्यादा दश वर्षकी है और सोलहकारणके समान यह भी एक वर्षमें तीन बार आता है ।। १५८४ - १५८५ ।। संवरकी साधनाके लिये अन्य जो विधि कही गई है वह सब इसमें भी जानना चाहिये । रत्नत्रय व्रतकी भी यही विधि है और वर्षमें तीन बार कहा गया है । इस व्रतमें भादों, माघ और चैत्रके शुक्ल पक्षकी द्वादशीको एकाशन कर शक्तिके अनुसार प्रोषध धारण कर उत्साहपूर्वक त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमाका तेला करे, पड़िवाको एकाशन करे, और पाँच दिन तक शीलव्रतका पालन करे । इस व्रतकी मर्यादा तीन वर्षकी है। अन्तमें उद्यापन कर व्रतका समापन करे ।।१५८६-१५८८।।
जो स्त्री-पुरुष उद्यापन करनेमें शक्तिहीन हैं वे व्रतके दिनोंको छोड़ते नहीं हैं (अर्थात् एकाशन कर व्रतको पूर्ण करते हैं) शेष विधि यथापूर्व करते हैं । अब इस रत्नत्रय व्रतका फल जिसने प्राप्त किया उसका कथन करता हूँ । विदेहा नगरीमें वैश्रवण राजा रहते थे उन्होंने विधिपूर्वक इस व्रतको धारण किया और अन्तमें वे मल्लिनाथ तीर्थंकर हुए । तीनलोक उनके चरणोंकी पूजा करता था, बाल ब्रह्मचारी रहकर उन्होंने तप किया और केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्तिपद पाया ।। १५८९-१५९०।।
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