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श्री कवि किशनसिंह विरचित कीनो आठ वरष लौ शुद्ध भाव देह त्यागि,
अच्युत सुरेशकी इन्द्रानी पद पायकै; भई रुकमिणी कृष्ण वासुदेव पट तिया, रुकमिणी नाम व्रत जाणो चित्त भायकै ॥१७९०॥ विमान पंक्ति व्रत
दोहा व्रत विमान पंकति तणो, विधि सुनिये भवि सार । मन वच क्रम करिये सही, सुर सुरेश पद धार ॥१७९१॥
अडिल्ल छंद सौधर्म रु ईशान स्वर्ग दुहुँतै गही, पंच पचोत्तर लगै पटल त्रेसठ कही; तिनकी चहुदिसि मांहि बद्ध श्रेणी जहाँ, जैन भवन है अनेक अकृत्रिम ही तहाँ ॥१७९२॥
दोहा तिनके नाम विधानको, वरत इहै लखि सार । जहाँ जहाँ जेते पटल, सो सुनिये विस्तार ॥१७९३॥
बीचके दिनोंमें पारणाएँ होती हैं। उपवासके दिनोंमें दो दो प्रहर श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा होती है। लक्ष्मीमतीने शुद्धभावसे आठ वर्ष तक यह व्रत किया। पश्चात् शरीर त्याग कर अच्युतेन्द्रकी इन्द्राणी हुई। वहाँसे चय कर श्री कृष्णकी रुक्मिणी नामकी पट्टरानी हुई। इसी कारण इस व्रतका 'रुक्मिणी व्रत' नाम प्रसिद्ध हुआ है ॥१७९०॥
विमान पंक्ति व्रत अब हे भव्यजनों! विमान पंक्ति व्रतकी विधि सुनो और मन वचन कायसे व्रत धारण करो। यह व्रत इन्द्र पदको देने वाला है ।।१७९१॥
सौधर्म और ईशान स्वर्गसे लेकर पंच अनुत्तर विमानों तक सब त्रेसठ पटल कहे गये हैं। उनकी चारों दिशाओंमें श्रेणीबद्ध विमान हैं और उन विमानोंमें अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। उनके नामोंको लक्ष्य कर इस व्रतका नाम 'विमान पंक्ति व्रत' है। अब जहाँ जहाँ जिस प्रकारसे पटल है उनका विस्तार सुनिये ॥१७९२-१७९३॥
सौधर्म और ईशान, इन दो स्वर्गों में इकतीस, सनत्कुमार और माहेन्द्रमें सात, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तरमें चार, लान्तव और कापिष्ठमें दो, शुक्र और महाशुक्रमें एक, शतार और सहस्रारमें
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