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श्री कवि किशनसिंह विरचित
अंतराय हु है उपवास, करै नाम मुख सोध्यो तास । घरके लोक बुलाय कहेई, बिन जाँचै भोजन जल देई॥१६६७॥ धरै थालमाहीं जो खाय, किरिया जैन अयाची थाय । लूण सर्वथा त्यागे जदा, भांति अलूणाकी है तदा ॥१६६८॥ जिन पूजा सुन शास्त्र बखान, एक गेहको करि परिमाण । जाय उडंड तासके द्वार, भोजन लेहु कहै नर नार ॥१६६९॥ ठाम असन जलको जो गहै, वरत नाम निरमान जु कहै । बारा वरत भांति दस दोय, अनुक्रमि सेत पक्ष भवि लोय ॥१६७०।। समकित सहित जु व्रतको धरै, त्रिविध शुद्ध शीलहि आचरै । करिहै पूरण वरष मझार, सो सुरपद पावे नर नार ॥१६७१॥
___ एकावली व्रत
अडिल्ल छन्द सुनहु भविक एकावली विधि है जिसी, सुकल प्रतिपदा पंचम अष्टम चउदसी; कृष्ण चतुरथी आठै चउदसि जाणिये,
चउरासी उपवास वरष-मधि ठाणिये ॥१६७२॥ आहार दान देवे। निरन्तराय आहार होनेपर स्वयं आहार करे। ९ पात्रके अन्तराय आनेपर स्वयं उपवास करे। १० अयाचित भोजन-घरके लोग स्वयं बुलाकर ले जावें तब बिना माँगे भोजन और जल ग्रहण करे, थालीमें जो आ जाय उसे ही लेवे। ११ अलवणाहार-नमकका सर्वथा त्याग कर आहार लेवें और १२ उदण्डाहार-जिनपूजा और शास्त्र व्याख्यान सुननेके बाद किसी एक घरका परिमाण कर बिना निमन्त्रण भोजनके लिये जावे, वहाँ स्त्री पुरुष जो अन्न जल देवें उसे अभिमान छोड़कर ग्रहण करे, इस व्रतको निरभिमान व्रत भी कहते हैं । उपर्युक्त बारह प्रकारकी विधि बारह महीनोंके शुक्ल पक्षमें करे ॥१६६२-१६७०।। ग्रन्थकार कहते हैं कि जो नरनारी सम्यग्दर्शनके साथ मन वचन कायकी शुद्धतापूर्वक इस व्रतको एक वर्षमें पूर्ण करते हैं वे देवपदको प्राप्त करते हैं ॥१६७१॥
एकावली व्रत हे भव्यजनों ! अब एकावली व्रतकी यथार्थ विधिको सुनो ! प्रत्येक माहके शुक्ल पक्षकी पड़िवाके १२, पंचमीके १२, अष्टमीके १२, चतुर्दशीके १२ तथा कृष्ण पक्षकी चतुर्थीके १२, अष्टमीके १२ और चतुर्दशीके १२ इस प्रकार एक वर्षमें ८४ उपवास करना चाहिये ॥१६७२॥
१ फिरि जांचे न अजाची थाय स. न.
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