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क्रियाकोष
दोहा
पांच वरष लौ वरत इह, करि त्रिशुद्धता धार । तातैं फल उतकिष्ट है, यामै फेर न सार || १७३२||
शिवकुमारका बेला चौपाई
शिवकुमारका बेला जान, सुनी कथा जिम कहूं बखान । चक्रवर्तिका सुत सुखधाम, शिवकुमार है ताको नाम || १७३३॥ घरमें तप कीनो तिह सार, बेला चौसठ वर्ष मझार । त्रिया पांचसौके घर मांहि, करै पारणै कांजी आहि ॥ १७३४॥
पूरण आयु महेन्द्र सुर थयो, तहँ तें जंबूस्वामी भयो । दीक्षा धरि तप कर शिव गयो, गुण अनंत सुख अंत न पयो ॥ १७३५॥
२७७
वर्ष हजार एक प्रति एक, बेला चौसठि धरि सुविवेक । करै आयु लघु जानी अबै, शील सहित धारो भवि सबै ॥ १७३६॥
लगतै करण सकति को नाहि, आठै चौदस कर सक नाहि । इनमें अंतर पाडै नहीं, सो उतकिष्ट लहै सुख ग्रही ॥ १७३७॥
अष्टमीका एकाशन तथा शेष तीन तिथियोंके उपवास करे । अथवा कोई भी दो उपवास और तीन एकाशन करे ।।१७३१।। यह व्रत मन वचन कायकी शुद्धतापूर्वक पाँच वर्ष तक करना चाहिये । इस व्रतसे उत्कृष्ट फलकी प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं है | १७३२॥
शिवकुमारका बेला
अब 'शिवकुमारका बेला' जैसा कथामें सुना है, वैसा कहता हूँ । शिवकुमार चक्रवर्तीका पुत्र था, वह सब प्रकारके सुखोंका स्थान था । उसने घरमें ही चौसठ ( हजार) वर्ष तक बेला तप किया। बेला के बाद पाँचसौ स्त्रियोंके घर कांजीका पारणा किया। आयु पूर्ण होनेपर वह माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुआ, वहाँसे आकर जम्बूस्वामी हुआ तथा दीक्षा धारण कर मोक्षको प्राप्त हुआ । उसके गुण और सुखोंका अन्त नहीं था ।। १७३३ - १७३५ ।। उसकी चौसठ हजार वर्षकी आयु थी इसलिये एक हजार वर्षका एक बेला, इस विधिसे चोसठ बेला उसने किये थे । जब उसे पता चला कि आयु अल्प रह गई है तब उसने शील सहित इस व्रतको धारण किया ।।१७३६।। यह बेला सप्तमी - अष्टमी तथा त्रयोदशी - चतुर्दशीका होता है। इसमें अंतर नहीं पड़ना चाहिये। इस व्रतको करनेवाला उत्कृष्ट सुखको प्राप्त होता है || १७३७॥
१. हजार न० स० क०
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