Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ क्रियाकोष २८३ सकल वास बेला बिच जाण, बीस इकंत जु कहे बखाण । ऐसे बीस दिवस जानिये, वरत मेरु पंकति मानिये ॥१७७०॥ शील सहित शुभ व्रत पालिये, हीण उदै विधिके टालिये । सुरपद पावै संशय नाहि, अनुक्रम भव लहि शिवपुर जाहि ॥१७७१॥ दोहा वरत मेरु पंकत इहै, वरन्यो सुखदातार । करहु भविक संमकित सहित,ज्यों पावै भवपार ॥१७७२॥ पंच मेरुके बीस वन, तहाँ असी जिनगेह । तिनके व्रतकी विधि सकल, पूरण कीनी एह ॥१७७३।। पल्य विधान व्रत दोहा सुनहु पल्य विधान व्रत, जिन आगम अनुसार । वास बहत्तर कीजिये, बारा मास मझार ॥१७७४॥ चाल छन्द आसोज किसन छठि तेरस, सुदि बेलो ग्यारस बारस । चौदसि सित प्रोषध धरिये, कातिक वदि बारसि करिये ॥१७७५॥ सौ होते हैं अर्थात् अस्सी उपवासोंकी ८० पारणा और बीस बेलाकी २० पारणाएँ होती हैं। यह व्रत सात माह और दश दिनमें पूर्ण होता है ॥१७६६-१७६९॥ समस्त उपवासों और बेलाओं के बीच पारणाके रूपमें एकन्तएकाशन होता है। इस प्रकार मेरु पंक्ति व्रतकी विधि जानना चाहिये ॥१७७०।। इस व्रतका शीलसहित पालन करना चाहिये अर्थात् व्रतके दिनोंमें ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनी चाहिये। कर्मोदयसे यदि कोई बाधा आती है तो उसे दूर करना चाहिये । इस व्रतके फलस्वरूप भव्यजीव स्वर्ग प्राप्त कर क्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१७७१॥ ग्रन्थकर्ता श्री किशनसिंह कहते हैं कि हमने सुखदायक मेरुपंक्तिव्रतका वर्णन किया है इसलिये हे भव्यजीवों ! सम्यग्दर्शनके साथ इस व्रतका पालन करो जिससे संसारका पार प्राप्त कर सको। पाँच मेरुओंके बीस वन और उनके अस्सी जिनमंदिर हैं। उन सबको लक्ष्य कर इस व्रतकी संपूर्ण विधि कही है।।१७७२-१७७३॥* पल्यविधान व्रत जिनागमके अनुसार पल्य विधान व्रतका वर्णन सुनो, इसमें एक वर्षके बारह मासोंमें बहत्तर उपवास होते हैं ॥१७७४॥ उनकी विधि इस प्रकार है :- आसौज वदी छठ और तेरसका उपवास, आसौज सुदी ग्यारस और बारसका बेला तथा चौदसका उपवास करे। कार्तिक वदी __ * इस व्रतका विशेष वर्णन हरिवंश पुराण पर्व ३४ में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348