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श्री कवि किशनसिंह विरचित
पाछै बेलो कीजे एक, वन सौमनस दूसरो टेक । चार जिनेश्वर भवन प्रकाश, चार वास पुनि बेलो तास || १७६३॥ नंदन वन जिन प्रोषध चार, पीछे ताके बेलो धार । पांडुक वन चउ जिनवर गेह, ताके चहु प्रोषध धरि एह || १७६४॥ पुनि बेलो धारो भवि सार, मेरु सुदरशन इह विसतार । प्रोषध सोलह बेला चार, व्रत दिन चहु चालीस मझार ॥। १७६५॥
चार बीस उपवास बखाण, बीस जु तास पारणा जाण । ऐसे अनुक्रम करिये भव्व, पंच मेरु व्रत विधि सो सव्व ॥१७६६॥
अध्यावत मेरु सुदरशन नाम, तेई नाम सबनि सुखधाम । वाही विधि सब वरत जु तणी, जाणो सही जिनागम भणी || १७६७॥ इनमें अंतर पाडे नहीं, लगते प्रोषध बेला गही । सब प्रोषधको अस्सी जोड, बेला बीस करे चित कोड || १७६८॥ वास सकल एकसौ बीस, करे पारणा सत्तर तीस । सात महीना दिन दस मांहि, सकल वरत यह पूरण थाहि ॥ १७६९ ॥
अपेक्षा एक बेला होता है । सुदर्शन मेरुके दूसरे वनका नाम सौमनस * वन है। इसके चारों दिशाओं संबंधी मंदिरोंके चार उपवास और वनका एक बेला होता है। तीसरा वन नन्दनवन है, इसके चार मंदिरों संबंधी चार उपवास और वन संबंधी एक बेला होता है । चौथा वन पाण्डुक वन है, इसके भी चार दिशाओं संबंधी चार मंदिरोंके चार उपवास और वन संबंधी एक बेला होता है । इस प्रकार सुदर्शन मेरु संबंधी सोलह उपवास और चार बेला होते हैं। एक उपवासके बाद एक पारणा और एक बेलाके बाद एक पारणा करनेसे १६+१६+८+ ४ = ४४ दिनमें सुदर्शन मेरु संबंधी व्रत पूर्ण होता है ।। १७६२ - १७६५ ।। इसी अनुक्रमसे भव्य जीवोंको शेष चार मेरु पर्वतोंके भी उपवास और बेला पारणाएँ होती हैं । इसी अनुक्रमसे भव्य जीवोंको शेष चार मेरु पर्वतोंके भी उपवास और बेला करना चाहिये । यही पाँच मेरु पंक्ति व्रत कहलाता है । सुदर्शन मेरु संबंधी व्रतके दिनोंमें सुदर्शन मेरुका ध्यान किया जाता है, अर्थात् उस नामकी जाप की जाती है । अन्य मेरु संबंधी व्रतके दिनोंमें उन मेरुओंका ध्यान किया जाता है । व्रत प्रारंभ करनेके बाद बीचमें अंतर नहीं पड़ना चाहिये । व्रत प्रारंभ करने पर पहले उपवास और पश्चात् बेला होता है अर्थात् पहले चार चैत्यालय संबंधी चार उपवास और उसके बाद वन संबंधी एक बेला करना चाहिये । उपवास और बेलाके दिनोंका योग एक सौ बीस ८० + ४० = १२० होता है । इनकी पारणाके दिन १ बन जे मेरु स० न० * मेरु पर्वतोंके वनोंका क्रम भद्रशाल वन, नन्दनवन, सौमनसवन और पाण्डुकवन प्रसिद्ध है ।
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