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क्रियाकोष
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अष्टाह्निका व्रत कथन
चौपाई अष्टाह्निका महाव्रत सार, है अनादि जाको नहि पार । जे उत्कृष्ट भए नर तेह, 'तिन पूरव व्रत कीन्हो एह ॥१५५१॥ वरत करनकी है विधि जिसी, जिन आगममें भाषी तिसी । तीन बार इक वरस मझार, असाढ कातिक फागुण धार ॥१५५२॥ जे उतकिष्ट वरतको करै, आठ-आठ उपवास जु धरै ।। दूजो भेद कोमली जान, जिनमारगमें कह्यो बखान ॥१५५३।। आठै दिन कीजे उपवास, नौमी एक भुक्ति परकास । दसमी दिन कांजी करि सार, पाणी भात एक ही बार ॥१५५४॥ ग्यारस अल्प असन कीजिये, दुयवट तजि इकवट लीजिये । मुख सोध्यो बारस विधि एह, त्रिविधि पात्रको भोजन देय ॥१५५५॥ अंतराय तिनको नहि थाय, तो वह व्रत धरि असन लहाय । अंतराय तिनिको जो परे, तो उस दिन उपवास हि करे ॥१५५६॥
सम्यग्दर्शनसहित व्रत सुखदायक होता है। वह अनुक्रमसे जीवको मोक्ष पहुँचा देता है इसलिये भव्यजीव जिन जिन व्रतोंको धारण करते हैं उनमेंसे कुछ व्रतोंके नाम कहता हूँ ॥१५५०॥
आष्टाह्निक व्रत कथन आष्टाह्निक व्रत महान व्रतोंमें सारभूत है, अनादिसे चला आया है, इसका पार नहीं है। पूर्वकालमें जो उत्कृष्ट पुरुष हुए हैं उन सबने इस व्रतको धारण किया है ॥१५५१॥ इस व्रतके करनेकी जैसी विधि जिनागममें कही है वैसी कहता हूँ। यह व्रत एक वर्षमें तीन बार आता है-अषाढ़, कार्तिक और फागुनके अंतिम आठ दिनोंमें धारण किया जाता है ॥१५५२॥
जो उत्कृष्ट व्रतको करते हैं वे तीनों शाखाओंमें आठ आठ उपवास करते हैं। इसका दूसरा भेद कोमली-सरल है। जिनागममें इसका व्याख्यान इस प्रकार किया गया है ।।१५५३॥ अष्टमीके दिन उपवास करे, नवमीको एकभुक्त-एकाशन करे, दशमीको कांजी करे अर्थात् भात और पानी एक ही बार लेवे, एकादशीके दिन अल्प आहार ले अर्थात् एक चमचा प्रमाण एक अन्न लेकर मुख शुद्ध कर ले । द्वादशीके दिनकी विधि यह है कि तीन प्रकारके पात्रोंको आहार देवे और इस विधिसे देवे कि उन्हें अन्तराय नहीं आवे । यदि अन्तराय नहीं आया है तो व्रतका धारक भोजन करे, यदि अन्तराय आया है तो उस दिन उपवास करे ॥१५५४-१५५६॥
१ तन मन पूरव कियो एह । स० २ सो उपवास आठ ही करे स० ३ व्रत न०
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