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क्रियाकोष
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इत्यादि कहाँलों ठीक, आगम ते अधिक अलीक । करिके शुभफलको चाहे, हियरे तिय अधिक उमाहै ॥१५४१॥ जो कलपित वरत जु मान, भाषै ते ते अघवान । जो सकल वस्तु ले आवै, जिन पूजा माहिं चढावै ॥१५४२॥ निज सगपन गेह मिलाय, बाँटै घर घर फिरि आय । भादोंके मास जु माहीं, तप करन सकति कै नाहीं ॥१५४३॥ इम कहि एकन्त कराही, जिन-उक्त वरत सो नाही । बांटै जो वस्तु मंगाई, सोई व्रत नाम धराई ॥१५४४॥ जिनमत व्रत बिनु मरयाद, करिये मन उक्त प्रमाद । जिन सूत्रनिमें जे नाही, सुखदाय न ते व्रत आही ॥१५४५॥ जिन आज्ञाको जे गोपै, ते निज कृत सब शुभ लोपै । यातें सुनिये नर नारी, मनमें निश्चय अवधारी ॥१५४६॥ जिन भाषित जे व्रत कीजे, मन उक्त न कबहूँ लीजे ।
आज्ञा विधि जुत व्रत धार, सुरपद पावे निरधार ॥१५४७॥ पानीकी थाली उघाड़ती है तो वहीं बैठकर पानी पी लेती है, भोजन नहीं करती। इस व्रतका नाम 'कर्मपति व्रत' कहा जाता है। आगममें इसका कोई वर्णन नहीं हैं ॥१५३७-१५४०।। ग्रन्थकार कहते हैं कि इन्हें आदि लेकर अनेक कल्पित व्रत हैं जो आगमकी अपेक्षा अलीक-मिथ्याव्रत हैं। इन्हें करके स्त्रियाँ अपने हृदयमें अधिक शुभ फलकी इच्छा करती हैं ॥१५४१॥
जो मनुष्य इन कल्पित व्रतोंको प्रमाण मानकर इनका उपदेश देते हैं वे पापी हैं। जो मनुष्य घरसे सकल वस्तुएँ ले जाकर जिनपूजामें चढ़ाते हैं और फिर अपने घर लाकर सगे संबंधियोंके घर घर जाकर बाँटते हैं तथा कहते हैं कि भाद्रमासमें तप करनेकी शक्ति नहीं है इसलिये एकन्त करते हैं इसे वे 'जिनोक्त व्रत' कहते हैं परन्तु आगममें यह व्रत नहीं है। जो वस्तुएँ मँगाकर बाँटते हैं, व्रतका भी वही नाम रख लेते हैं। जिनमतके बिना अन्य जो मन उक्तकल्पित व्रत हैं वे प्रमाद उत्पन्न करनेवाले हैं। जिनागममें इन व्रतोंका वर्णन नहीं हैं वे व्रत सुखदायक नहीं हैं ॥१५४२-१५४५॥
जो जिन आज्ञाको छिपाते हैं अर्थात् उसके विरुद्ध प्रवृत्ति करते हैं वे अपने व्रतके पुण्यका लोप करते हैं। इसलिये हे नरनारियों ! सुनकर मनमें निश्चय करो कि हम जिनभाषित व्रतोंको करेंगे और मन उक्त-कल्पित व्रत कभी ग्रहण नहीं करेंगे। जो जिनाज्ञाके अनुसार व्रत धारण करते हैं वे निश्चय ही देवपद प्राप्त करते हैं ॥१५४६-१५४७।।
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