Book Title: Kriyakosha
Author(s): Kishansinh Kavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 260
________________ क्रियाकोष जो जिन पूजक पुरुष हैं, ते दुरगति नहि जाय । तिनकी मूरति सबनिको, लागै अति सुखदाय ॥। १४७२ ॥ छन्द चाल " जिन पूजातें है इन्द्र, ताको सेवै सुर वृंद । अरु चक्री पदको पावै, षट खण्डहि आणि फिरावै ॥। १४७३॥ धरणेन्द्र लहे पद नीको, स्वामी दस भुवनपतिको । हरि प्रतिहरि पदई थाय, बलभद्र मदन शुभकाय || १४७४॥ पूजा फल कौ नहि पार, अनुक्रम तीर्थंकर सार । पदवी पावै शिव जाइ, किसनेस नमैं सिर नाइ ॥ ९४७५॥ २३३ छप्पय छंद दोष अठारह रहित तीस चउ अतिशय मंडित, प्रातिहार्य युत आठ चतुष्टय च्यारि अखंडित; समवसरण विभवादि रूढ, त्रिभुवनपति नायक, भविजन कमल प्रकास करन, दिनकर सुखदायक; देवाधिदेव अरहंत मुझ भगति तणौ भव भय हरौ । जयवंत सदा तिहुं लोकमें सकल संघ मंगल करौ || १४७६ | जो पुरुष जिनेन्द्र भगवानके पूजक हैं वे दुर्गतिमें नहीं जाते, उनकी मूर्ति सबके लिये अि सुखदायक लगती है ॥१४७२॥ Jain Education International जिनपूजाके प्रभावसे जीव इन्द्र होता है, देवोंके समूह उसकी सेवा करते हैं, वह, चक्रवर्ती पदको प्राप्त करता है जिससे छह खण्डोंमें अपनी आज्ञा चलाता है, धरणेन्द्रका पद भी प्राप्त होता है जो दश प्रकारके भवनवासी देवोंका स्वामी होता है, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र और सुन्दर शरीरका धारक कामदेव होता है । पूजाके फलका कोई पार नहीं है । क्रम क्रमसे तीर्थंकर पदको प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त होता है । कविवर किशनसिंह कहते हैं कि मैं मोक्षपदको प्राप्त जीवोंको शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ || १४७३-१४७५।। जो अठारह दोषोंसे रहित हैं, चौतीस अतिशयोंसे सुशोभित हैं, आठ प्रातिहार्योंसे युक्त हैं, चार अनन्त चतुष्टयोंसे अखण्डित - परिपूर्ण हैं, समवसरणादिक वैभवको प्राप्त हैं, त्रिभुवनके स्वामियोंके अधिपति हैं और भव्यजीवरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्य है, ऐसे सुखदायक देवाधिदेव अरहन्त भगवान भक्तिके फलस्वरूप मुझ किशनसिंहके भवभयको हरें अर्थात् मुझे जन्ममरणके द्वन्द्वसे दूर करें, तीन लोकमें सदा जयवंत रहे और सकल संघका मंगल करें ||१४७६॥ १. पूजातें सुर है नायक, अपछर सेवे सुरपायक । क० ख० ग० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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