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श्री कवि किशनसिंह विरचित
यातैं सुनिये भवि प्राणी, जलकी विधि मनमें आणी । बहु धरि विवेक जल गालै, मन वच तन करुणा पालै ॥ ८१३॥ पंचनमैं सो अति लाजै, अर जिन आग्या सो त्याजै । सो पाप उपावै भारी, जाणौं तसु हीणाचारी ॥ ८१४ ॥* यातै ल्यो वसन सुपेद, छाणो जल किरिया वेद । औरन उपदेश जु दीजै, विणु छाणे कबहु न पीजै ॥ ८१५ ॥ श्रावक वनिता घरमांही, किरिया जुत वह जतन थकी जल छाणौ, ताको जस लघु त्रिया प्रमाद प्रवीण, जलकी तापै न छणावै पाणी, वनिता स्यों जाण्यो स्यांणी ॥ ८१७॥
सदा रहां ही । सकल वखाणौ ॥ ८१६ ॥ किरियामें हीण ।
तजि आलस अरु परमाद, गालै जल धरि अहलाद । औरनि स्यौं नहि बतरावै, 'जल कण नहि पडिवा पावै ॥ ८१८॥ जलबून्द जनमें परि है, अपनी निंदा बहु करि है । ले दंड सकति परमाण, पालै हिरदे जिन आण ॥ ८१९॥
हे भव्य जीवों ! जल छाननेकी इस विधिको सुनकर मनमें धारण करो, बहुत कर जल छानो तथा मन वचन कायसे करुणाका पालन करो ॥ ८१३॥
जो जिन आज्ञाका त्याग करता है वह पंचोंमें अत्यन्त लज्जित होता है, और बहुत भारी पापका उपार्जन करता है। ऐसे मनुष्यको हीनाचारी जानना चाहिये ॥ ८१४॥ इसलिये सफेद वस्त्र लेकर क्रियापूर्वक जलको छानो तथा दूसरोंके लिये भी यह उपदेश दो कि वे बिना छना पानी कभी न पिये । ८१५|| श्रावकके घर जो स्त्रियाँ रहती हैं वे सदा क्रिया सहित रहती हैं । वे यत्नपूर्वक जल छानती है जिससे सब लोग उनके यशका वर्णन करते हैं-सब उनकी प्रशंसा करते हैं ||८१६|| जो छोटी स्त्री प्रमादी है, जल छाननेकी क्रियासे रहित है, उससे पानी नहीं छनवाना चाहिये। जिस स्त्रीको सयानी - जानकार जानो, उसीसे पानी छनवाओ । आलस्य और प्रमादको छोड़कर तथा हृदयमें हर्ष धारण कर जल छानो । छानते समय दूसरोंसे बात नहीं करो। इतनी सावधानीसे छानो कि जलका एक कण भी नीचे नहीं पड़ने पावे । यत्न करते हुए भी जलकी बूंद यदि नीचे पड़ जावे तो अपनी बहुत निन्दा करो और शक्तिप्रमाण प्रायश्चित्त लो, * ८१४वें छन्दके आगे न० और स० प्रतिमें निम्नलिखित छन्द अधिक हैप्रथमहि श्रावक आचारा, जलगालन विधि निरधारा । बहु रंगित कपरामांही, गृहपति जो नीर
छनाई ॥
१ जगत स० २ जलरक्षा पर चित लावें न० स० ३ जु भूपर परिहै स
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विवेक रख
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