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क्रियाकोष
दियो दान जाचक जन जितौं, मोपै कथन होय नहि तितौ । विधिसौं पूजै जिनवर देव, श्रुत गुरु वंदन करि बहु सेव ॥ ८९२॥ अधिक महोछव कीनो सार, जैसो श्रावकको आचार । वस्त्रादिक आभरण अपार, सब परिजन संतोषे सार ॥ ८९३॥ अनुक्रम बरस सातको भयो, पंडित पास पठनको दियो । शास्त्रकलामें भयो प्रवीन, श्रावकव्रत जुत समकित लीन ॥ ८९४॥ जोबनवंत भयो सुकुमार, ब्याह न कीनो धरम विचार | एक दिवस वनक्रीडा गयो, बड तरु बिजरीतें क्षय भयो । ८९५ ।। देख कुमर उपजो वैराग, अनुप्रेक्षा भाई बडभाग । चन्द्रकीर्ति मुनिके ढिग जाय, दीक्षा लीनी तब सुखदाय ॥ ८९६॥ बाहिर अभ्यन्तर चौबीस, तजे ग्रन्थ मुनि नाये सीस । पंच महाव्रत गुपति जु तीन, पंच समिति धारी परवीन ॥ ८९७॥ इम तेरा विध चारित सजे, निश्चय रत्नत्रय सु भजे । सुकल ध्यानबल मोह विनास, केवलज्ञान ऊपज्यो तास ॥ ८९८ ॥
जीव-देव सोलहवें स्वर्गसे चय कर प्रेमकारिणी रानीके पुत्र हुआ । उसका सुधारस नाम रक्खा गया । माता पिता अत्यन्त आनन्दको प्राप्त हुए ।। ८९१|| याचकोंको जितना दान दिया गया उसका वर्णन मुझसे नहीं हो सकता । विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी पूजा की गई और देव शास्त्र गुरुकी वन्दना कर उनकी बहुत सेवा की गई || ८९२ || माता पिताने श्रावकाचारके अनुसार पुत्र जन्मका महोत्सव किया, सब परिजनों- कुटुम्बके लोगोंको अच्छे अच्छे वस्त्राभूषण देकर संतुष्ट किया ॥ ८९३ ॥
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जब बालक सात वर्षका हुआ तब उसे पढ़नेके लिये पण्डितको सौंपा । वह शीघ्र ही शास्त्र कलामें निपुण हो गया तथा सम्यग्दर्शन सहित श्रावक व्रत उसने धारण कर लिये ।। ८९४ ॥
जब वह सुधारस कुमार युवान हुआ तब उसने धर्मका विचार करके विवाह नहीं किया । एक दिन वह वनक्रीड़ाके लिये गया था । वहाँ उसने देखा कि बिजली गिरनेसे एक वटवृक्षका नाश हो गया है। उसे देख वह बड़भागी संसारसे विरक्त हो अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करने लगा । उसने चन्द्रकीर्ति मुनिराजके पास जाकर सुखदायक दीक्षा धारण कर ली । बाह्याभ्यंतरके भेदसे चौबीस प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर उसने मुनिराजको नमस्कार किया । पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिके भेदसे तेरह प्रकारका चारित्र धारण किया। साथ ही निश्चयरत्नत्रयकी आराधना कर शुक्लध्यानके बलसे मोहनीय कर्मका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त
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