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श्री कवि किशनसिंह विरचित
बीति जाय जब ही छह मास, जिन पूजा उच्छव परकास । जावे पंच तासुके गेह, जाति मांहिं तब आवे जेह ॥१३२१॥ मरयादा ऐसी को छांड, और भांति करवा नहि मांड । जो जिन आगम भाखी रीत, सो कहिये भवि मन धर प्रीत ॥१३२२॥
अडिल्ल छंद सूतक क्षत्री गेह पंच वासर कह्यो, ब्राह्मण गेह मझारि दिवस दस ही लह्यो; अहो रात्रि दस दोय वैश्य घर जानिये, सब शूद्रनिके सूतक पाख बखानिये ॥१३२३॥ ऋतुवंती तिय प्रथम दिवस चंडालणी, ब्रह्मघातिका दिवस दूसरामें भणी; त्रितिय दिवसके मांहि निदि सम रजकणी, वासर चौथे स्नान क्रियासों सुध भणी ॥१३२४॥ जाकै घरमें नारि अधिक है दुष्टणी, ताकै किरिया हीण सदा पूरव भणी, व्यभिचारणी परपुरुषरमण मति है सदा, ताके घरको सूतक निकसै नहि कदा ॥१३२५॥
जब छह माह बीत जाते हैं तब वह जिनपूजाका उत्सव करता है। पंच लोग उसके घर जाते हैं तथा उसे जातिमें मिलाते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकारकी जो मर्यादा चली आती है उसे छोड़कर और भाँतिकी रीति नहीं चलानी चाहिये। जिनागममें जैसी रीति कही गई है वैसी ही मनमें प्रीति धारण कर करनी चाहिये ॥१३२१-१३२२॥
क्षत्रियके घर सूतक पाँच दिनका, ब्राह्मणके घर दश दिनका, वैश्यके घर बारह दिनका और शूद्रके घर एक पक्षका अर्थात् पन्द्रह दिनका कहा गया है ।।१३२३॥
ऋतुमती-मासिक धर्मवाली स्त्री प्रथम दिन चाण्डालनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिका, तृतीय दिन रजकी, और चौथे दिन स्नान कर शुद्धता प्राप्त करनेवाली कही गई है ॥१३२४।।
जिसके घरमें स्त्री अधिक दुष्ट प्रकृतिकी है उसके घर सब क्रियाएँ हीन होती है अर्थात् उनका परिपालन अच्छी तरह नहीं होता। जिसके घर स्त्री व्यभिचारिणी अर्थात् पर पुरुषके साथ रमण करनेवाली है उसके घरका सूतक कभी दूर नहीं होता ॥१३२५।।
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