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श्री कवि किशनसिंह विरचित बालक जनमे तिय कोई, मूला असलेखा होई । दिन सात बीस परमाणे, वनिता नहि स्नान जु ठानै ॥१३६७॥ पति पहिरै वसन मलीन, बालक नजरै नहि चीन । सिर दाढी केस न ल्यावै, स्नानहुँ करिवो नहि भावै ॥१३६८॥ दिन है सब जाय वितीत, किरिया बहु रचै अनीत । द्विजको निज गेह बुलावे, वह मूला शांति करावे ॥१३६९॥ तरु जाति बीस अरु सात, तिनके जु मंगावे पात । इतने ही कूवा जानी, तिनको जु मंगावे पानी ॥१३७०। इतने ही छानि जु केरा, सो फूस करै तस भेरा । अरु सताईस कर टूक, सीधा इतने ही अचूक ॥१३७१॥ दक्षिणा एती ज मंगावे, सामग्री होम अनावे । करि अगिनि बाल अगियारी, घृत आदिक वस्तु जु सारी ॥१३७२॥ होमे करि वेद उचारे, इह मूल शांति निरधारे । पाछे फिर एम कराई, वह फूस जो देय जलाई ॥१३७३॥ बालक पग तेल जु मांहीं, परियणको देहि बुलाई ।
सबही बालककै पाय, करि धोक द्याह सिर नाय ॥१३७४॥ बालकका जन्म होनेके दिन यदि मूला या अश्लेषा नक्षत्र होता है तो सत्ताईस दिन तक स्त्री स्नान नहीं करती है, पति मलिन वस्त्र पहिनता है, बालकको देखता भी नहीं है, शिर और दाढीके केश रखाता है तथा अच्छी तरह स्नान भी नहीं करता ॥१३६७-१३६८॥
जब सत्ताईस दिन व्यतीत हो जाते हैं तब बहुत विपरीत क्रिया करता है :- ब्राह्मणको अपने घर बुलाता है और उससे मूला ग्रहकी शांति कराता है, सत्ताईस वृक्षोंके पत्ते इकट्ठे करता है, सत्ताईस ही कुओंका पानी मँगाता है, इतने ही मकानोंके छप्परसे फूस इकट्ठे करता है, सत्ताईस सीधे एकत्रित करता है। जब इतनी दक्षिणा मिल जाती है तब ब्राह्मण होमकी सामग्री मँगाता है, अग्नि प्रज्वलित कर घी आदि समस्त वस्तुएँ उसमें होमता है ॥१३६९-१३७२।।
होमके समय वेदका पाठ करता है। इस प्रकार मूला ग्रहकी शांति कराता है। होम करनेके बाद वह इकट्ठा किया हुआ फूस जला देता है। जिस बालकके मूला ग्रहकी पूजा की जाती हैं उसके पैर तेलमें डुबाते हैं, कुटुम्ब परिवारके लोगोंको बुलाते हैं। सब लोग बालकके पैरों पर तेल ढोल कर उसे शिर झुकाते हैं। और मुखसे कहते हैं कि तू हमसे बड़ा कहावे
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