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श्री कवि किशनसिंह विरचित तमाखू भांग निषेध वर्णन
छंद चाल सुनिये बुधजन कलिकाल, प्रगटी हीणी दोय चाल । इक प्रथम तमाखू जानो, दूजी विजिया हि वखानो ॥१३३१॥ सुनि लेहु तमाखू दोष, अदया कारण अघ कोष । निपजनकी विधि है जैसे, परगट भाषत हौं तैसे ॥१३३२॥ तसु हरित तोडिकै पात, सांजी जलतें छिडकांत । गदहाको मूत्रजु नांखै, बांधि रु जूडा धरि राखै ॥१३३३॥ दिन बहुत सरदता जामें, त्रस जीव ऊपजै तामें । तिनकी अदया है भूरि, करुणा पलहै नहि मूरि ॥१३३४॥* पिरथीमें आगि डराही, तिनितें जिय नास लहांही । धूवां मुख सेती निकसै, तब वायु जीव बहु विनसै ॥१३३५॥ थावरकी कौन चलावै, त्रस जीव मरण बहु पावै । दुरगंध रहैं मुखमांही, कारै कर कै अधिकांही ॥१३३६॥ उत्तम जब ढिग नहि आवै, निंदा सब ठाम लहावै । दुरगतिहि दिखावे वाट, सुरगतिको जाणि कपाट ॥१३३७।।
तमाखू-भांग निषेध वर्णन हे विद्वज्जनों ! सुनो, कलिकालमें दो हीन प्रवृत्तियाँ चल पड़ी है। एक तो तमाखूका सेवन और दूसरी विजया-भांगका पीना। प्रथम ही तमाखुके दोष सुनो। यह तमाखू अदयाका कारण तथा पापका भण्डार है। उसकी उत्पत्तिकी जैसी विधि प्रकट है वैसी कहता हूँ ।।१३३११३३२॥ तमाखूके हरे पत्ते तोड़कर उन पर सजीका पानी छिड़कते हैं पश्चात् अपवित्र वस्तु डालकर उनका जूड़ा बाँधकर रखते हैं। उसमें आर्द्रता बहुत दिन तक रहती है अतः त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं जिससे बहुत अदया होती है। मूलतः उनकी करुणा नहीं की जाती। उस तमाखूको पृथिवी पर डालते हैं तो उसकी गन्धसे अनेक जीव नष्ट होते हैं। तमाखू पीनेवालेके मुखसे जब धुवां निकलता है तब वायुकायके बहुत जीव मर जाते हैं । स्थावरोंकी तो बात ही क्या है ? त्रस जीव भी बहुत मर जाते हैं। पीनेवालेके मुखमें दुर्गन्ध रहती है तथा उसके हाथ काले पड़ जाते हैं। उत्तम मनुष्य उसके पास नहीं जाते। वह सब जगह निन्दाका पात्र होता है। तमाखू दुर्गतिका मार्ग दिखानेवाली है और देवगतिके कपाट लगानेवाली है ॥१३३३-१३३७॥ * न० और स० प्रतिमें छन्द १३३४ के आगे निम्न छंद अधिक है
पापी पीवनके हेत, गुल घाल मसल सो लेत। पानी डारे हक्कामें, उपजै निगोदिया तामें ।।
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