________________
क्रियाकोष
इह भेद मूढ नहि जाने, अघ वाले अगन बखाने । पंचेन्द्री तामें थाई, सो तो फासू गणवाई ॥१०४६॥
जिय अन्न तणी दुय दाल, दधि छांछ मांहि दे डाल । सो भोजन विदल कहाही, खाये ते पाप बढाही || १०४७॥
अन्न दाल छाछि दधि जेह, मुख-लाल मिले तब तेह । उतरता गला मंझारी, पंचेन्द्री जिय निरधारी || १०४८॥ उपजै ता मांहे जानो, मनमें संशय नहिं आनो । सो खैहे ढूंढ्या पापी, करुणा तिन निचै कांपी || १०४९ ॥
कछु खादि अखादि विचारी, ढूंढ्या समझे न लगारी । अघ उपजे वस्तु जु माहीं, भाष्यो सुनि लेहु तहांही ||१०५०| ऐसो पापी मुख देखै, ह्वै पाप महा सुविशेखै । ऐसे कर अघ आचार, तिन माने मूढ, गवार ॥१०५१ ॥ धोवण चावल हांडीको, तिन ले गिन फासू नीको । सीलै जल अन्न मिलाई, तामें बहु जिय उपजाई ॥ १०५२॥
दालें होती हैं ऐसे द्विदलान्नको दही और छांछमें डाल देनेसे द्विदलका दोष होता है । इसके खानेसे पापकी वृद्धि होती है । दही और छांछमें पड़ी अन्नकी दाल, मुखकी लारके साथ मिल कर जब गले में उतरती है तब उसमें पंचेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है। इस विषयमें मनमें संशय नहीं लाना चाहिये । इस प्रकारके द्विदलान्नको पापके विचारसे रहित ढूंढिया लोग खाते हैं। ऐसा लगता है मानो करुणा निश्चयतः उनसे काँपती है । तात्पर्य यह है कि उनकी परिणति जीवदयाका विचार नहीं करती ।। १०४६-१०४९ ।। क्या भक्ष्य है ? और क्या अभक्ष्य है ? इसका विचार उनके मनमें नहीं उठता। जिन वस्तुओंके खानेमें पाप उत्पन्न होता है उन्हीं वस्तुओंको खानेका वे उपदेश देते हैं। इस प्रकारके पापी मनुष्योंका मुख देखनेमें भी महान पाप लगता है । इस तरहके पापवर्धक आचार वालें ढूंढिया लोगोंको जो मानते हैं - श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते हैं, वे अज्ञानी हैं। चावलकी हंड़ी धोवनको वे प्रासुक जल समझकर ग्रहण करते हैं । ठण्डे जलमें अन्न मिला कर रखते हैं जिससे उसमें बहुत जीवोंकी उत्पत्ति होती है || १०५०-१०५२।।
१ छन्द १०५० न० और स० प्रतिमें इस प्रकार उपलब्ध है
Jain Education International
"कछु खाद्य अखाद्य विचार, ढूंढया समझे न गवार । अघ उपजे वस्तु जु मांही, फासू गणि ताहि गहाही ।। जो विदल भेद निरधार, सुनिवेकी इच्छा सार । तो कथन मूल गुण मांही, भाष्यो सुणि लेहु तहांही ॥ "
१६७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org