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क्रियाकोष
पाप,
मिथ्यात बढै संताप |
लैने देने को तातै जैनी है जेह, पूज्यो न चढ्यो कछु लेह ॥११४६॥ सतियनको राति जगावै, पित्रनहूं को जु मनावै । बीजासण सोकि आराधै, जागरण करैं हित साधै ॥ ९१४७॥
संजोडा अवर कंवारा, गोरणीय जिमावै सारा । तिनके करि तिलक लिलाट, पायनि दे ढोक निराट || १९४८॥ पैसादिक तिनकों देई, वे हरषि हरषि चित लेई । इह किरिया अति विपरीति, छांडौ बुध जाणि अनीति | ११४९॥ अडिल्ल छन्द
बीजासणको करवि झालरो उरि धरे, सो किउ घडत घडाल पातरी हिय परे; मूढ मान तिन पूजै घर लछमी जबै, उदै असाता भये बेचि खैहैं तबै ॥११५०॥
दोहा
सकलाई तिनमें इसी, अविवेकी न लखांहि । सुरभखमें बहु मानता, दुरभख सों बिक जांहि ||११५१ ॥
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हृदयमें लोभ रख कर उसे लेते हैं । इस प्रकार चढ़ाई हुई सामग्रीको लेने देनेमें पाप है, मिथ्यात्व है, इससे संतापकी वृद्धि होती है इसलिये जो जैनी हैं वे पूजामें चढ़ाई गई सामग्रीको बिलकुल नहीं लेते ।।११४५ - ११४६॥ कई लोग सतियोंका रात्रि जागरण करते हैं अर्थात् घरमें कोई स्त्री सती हुई हो तो उसका स्मरण कर रात्रि जागरण करते हैं -गीत गाते हुए रात्रिभर जागते रहते हैं । मृत पुरुषोंकी मनौती करते हैं, बीजासन - बीजके रक्षक देवकी आराधना करते हुए जागरण करते हैं । संजोड़ा - स्त्रीपुरुषोंके जोड़े, कुंवारे - अविवाहित लड़के और सौभाग्यवती स्त्रियाँ, इन्हें जिमाते हैं । उनके ललाट पर तिलक लगाकर चरणोंमें धोक देते हैं, उन्हें पैसा आदिक देते हैं और वे उसे प्रसन्नचित्त होकर लेते हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह क्रिया अत्यन्त विपरीत है इसलिये हे ज्ञानी जनों ! इसका त्याग करो ।। ११४७ - ११४९|| कितने ही लोग बीजासनकी स्थापना कर उसके वक्षःस्थल पर वस्त्र धारण करते हैं, तरह तरहके आभूषणादि बना कर उसे पहिनाते हैं । अज्ञानी लोग यह मान कर उसकी पूजा करते हैं कि इसकी पूजासे घरमें लक्ष्मी आती है । परन्तु उन्हीं पूजा करने वालोंके अशाता कर्मके उदयसे जब दरिद्रता आ जाती है तो उसे बेच कर खा लेते हैं ।। ११५० ।। अज्ञानी जन इसकी यथार्थताको नहीं जानते हैं इसलिये सुभिक्षके समय उसकी
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