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क्रियाकोष
जीवनिको नाश होय मानत त्यौहार लोय, कैसे सुख पावे सोय पशु पूजै नाम ही; महा अविचारी मिथ्याबुद्धिचारी नरनारी; ऐसी क्रिया करें श्वभ्र लहै दुखधाम ही ॥१२१५॥ दोहा
हलदमाहिं रंग सूतको, गाज लेत हैं तेह । सुणै कहानी खोलतै, रोट करत है तेह ॥१२१६॥ धोक देय पूजै तिसे, कहि सुखदाई एह । नाम ठाम नहि देवको, भवभवमें दुख देह ॥ १२१७||
छन्द चाल
नारी जो गर्भ धरे है, बालक परसूत करे है । जनमें बालक जिहि वार, तसु योलिहि लेत उतार ॥ १२१८॥ केउनके ऐसी रीति, गावै तिय मन धर प्रीति ।
गाडै चित अति हरषाई, ते ओलि घाट ले जाई || १२१९॥
केऊ रोटीके मांही, गाडे के देत नखाहीं । ता मांही जीव अपार, गाडे सो हीणाचार | १२२०॥ निगोद राशिके जीव है । जिस क्रियासे जीवोंका नाश होता है उसे लोग त्यौहार मानते हैं । कवि कहते हैं कि पशुकी पूजा करनेसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अत्यन्त अविचारी और मिथ्याबुद्धिवाले जो नरनारी इस प्रकारकी क्रियाओंको करते हैं वे दुःखके स्थान स्वरूप नरकको प्राप्त होते हैं ।। १२१५॥
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कितने ही लोग हलदीमें सूतको रंग कर उसका पिण्ड बना लेते हैं, उसे धोक देकर पूजते हैं, कथा कराते हैं, बड़ा रोट बनवा कर उसे चढ़ाते हैं और कहते हैं कि यह इसी लोकमें सुखदायक है । ग्रंथकर्ता कहते हैं कि इस देवका न कोई नाम है और न ही कोई स्थान है। वह भवभवमें दुःख देने वाला है ।।१२१६-१२१७।।
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स्त्रियाँ गर्भ धारण कर बालकको जन्म देती है सो जिस समय बालक जन्म लेता है उस समय उसकी नाभिनाल उतारती है । कहती हैं कि ऐसी कुल परम्परा है। स्त्रियाँ मिल कर बड़ी प्रसन्नतासे गीत गाती हैं, चित्तमें अत्यधिक हर्षित होती हैं, और उस नाभिनालको कोई घरमें गाड़ती है और कोई जलाशयके घाट पर पानीमें डाल देती है । गाड़नेमें अपार जीवोंकी हिंसा होती है इसलिये गाड़ना हीन आचार है । जो गाड़ते हैं वे अदयाके अधिकारी हैं अर्थात् दया १ णालि हि न० २ केऊ उकरडी न०, केउ जु रोटीके स० ३ गाडे के देय बहाई स० नखाही न०
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