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श्री कवि किशनसिंह विरचित ते अदयाके अधिकारी, पावें दुरगति दुख भारी । जिनके करुना मनमांही, ताकों दे दूरि नखाहीं ॥१२२१॥ दस दिनको द्वै जब बाल, सूरज पूजै तिह काल । लागै तसु दोष मिथ्यात, जिन मारग ए नहि वात ॥१२२२॥ तीन्हे जब न्हवण करै है, जल थानिक पूजन जै हैं । जल जीवनको भंडार, एकेन्द्री त्रस अधिकार ॥१२२३॥ जैनी जिनके घर मांही, संका चितमांहि धराही । जलथानक जाय न दूजै, घरमांहि परहडी पूजै ॥१२२४॥ ताको है दोष महन्त, ततक्षिण तजिये गुणवन्त । दिन तीस तणो है बाल, जिनमारगमें इह चाल ॥१२२५॥ वसु दरव मनोहर लेई, चैत्याले गमन करेई । ले बालक अंक मझारी, तिन साथ चलै बहु नारी ॥१२२६॥ गावै जिनगुण हरषंती, इम मंदिर जिन दरसंती । भगवंत चरण सिर नाय, पुनि नृत्य रचै बहु भाय ॥१२२७॥ वाजिन विविधके बाजै, जानौ घन अंबर गाजै ।
१जिन भाव हरखि धरि सेवै, तसु जनम सफलता लेवै॥१२२८॥ रहित हैं तथा दुर्गतिमें भारी दुःख प्राप्त करते हैं। जिनके मनमें करुणा भाव है वे उस नालको दूर फिकवा देते हैं। जब बालक दस दिनका हो जाता है तब स्त्रियाँ सूर्यकी पूजा करती हैं, इससे उन्हें मिथ्यात्वका दोष लगता है। जैन मार्गमें ऐसी बात नहीं होती ॥१२१८-१२२२॥ उन प्रसूता स्त्रियोंको जब स्नान कराती हैं तब जलस्थान, कूवा आदिकी पूजाके लिये जाती है। जल, जीवोंका भंडार है, वह एकेन्द्रिय तो स्वयं है ही, त्रस जीवोंकी भी उसमें अधिकता रहती है। जैनी लोग, जो अपने मनमें कुछ शंका रखते हैं वे किसी अन्य जलस्थान पर नहीं जाते परन्तु घरमें ही परहंडी (जल रखनेका स्थान) की पूजा कर लेते हैं परन्तु यह सब भी दोष है। गुणवान मनुष्योंको यह कार्य तत्काल छोड़ देना चाहिये। जिनमार्गमें तो यह रीति है कि जब बालक तीस दिनका हो जावे तब घरके लोग सुन्दर अष्टद्रव्य लेकर चैत्यालय जाते हैं, बालकको गोदमें लेते हैं तथा बहुत सी स्त्रियाँ साथ चलती हैं वे भगवान जिनेन्द्रके गुण गाती हैं, इस तरह मंदिरको देखती हुई बहुत हर्षित होती हैं। भगवानके चरणोंमें शिर झुकाकर नमस्कार करती हैं, बहुत प्रकारके नृत्य करती हैं ॥१२२३-१२२७॥ नाना प्रकारके बाजे बजते हैं, उससे ऐसा जान पड़ता है मानों आकाशमें मेघ
१ जिनराज भाव धरि सेवे न० स०
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