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श्री कवि किशनसिंह विरचित
गावें विनोद अनेक विनरी नीरमें तसु डारहीं;
अति हास्य करती हरष धरती आप गेह सिधार ही ॥ १२०३॥ दोहा
इह प्रभुता सब देखि कै, गौरी ईश महेश | वाकूं जलमें खेपतें, डर न कियो लवलेश ॥ १२०४ ॥ रहित सकत तिहि देखिये, करिवि थापना मूढ । महा मिथ्याती जान तिन, धारे दोष अगूढ || १२०५ ॥ सोरठा
इन पूजै फल येह, कुगति अधिक फल भोगवै । यामें नहि सन्देह, जैनीको इह योग्य नहि || १२०६ || दुर्लभ नरभव पाय, जैन धरम आचार जुत । ताको चित विसराय, पूज करै गण-गौरिकी ॥ १२०७॥ सो मिथ्यातको मूल, त्रिविधि तजौ तिन सुखद लखि । होय धरम अनुकूल, तातै भव भव सुख लहै ॥ १२०८ ॥
ले जाकर जलके निकट पहुँचती हैं, वहाँ अनेक प्रकारकी विनरी (गीत) गाती हैं तथा उस गणगौरीको पानीमें डाल देती हैं । पश्चात् हर्षित होती हुई हास्यविनोद करती हुई अपने अपने घर वापिस आती हैं । १२०३॥
गौरी और महेशकी इतनी प्रभुता देखकर भी लोग उन्हें पानीमें डालते हुए थोड़ा भी भय नहीं करते यह आश्चर्यकी बात है । शक्ति रहते उनका दर्शन करते रहना चाहिये था । इससे सिद्ध है कि अज्ञानी जन ही उनकी स्थापना करते हैं । स्थापना करने वाले महा मिथ्यात्वी हैं वे प्रकट ही अनेक दोषोंको धारण करते हैं ।।१२०४-१२०५ ।।
ग्रन्थकार कहते हैं कि गणगौरीकी पूजासे प्राप्त होने वाला इस लोक संबंधी फल तो यही है कि कुगतिमें अधिक फल भोगना पड़ता है; इसमें कुछ भी संदेह नहीं है इसलिये जैनी जनों को यह पूजा योग्य नहीं है ॥ १२०६ ॥
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जैनधर्म संबंधी आचार सहित दुर्लभ मनुष्यपर्याय प्राप्त करके भी लोग उसे भुला कर गणगौरीकी पूजा करते हैं यह मिथ्यात्वका मूल है अतः इसका मन, वचन, कायासे त्याग करो । ऐसा करनेसे ही सुखदायक धर्म अनुकूल होगा और भवभवमें उससे सुखकी प्राप्ति होगी ।। १२०७ - १२०८॥
१ जुवती न० स० २ वाय तलामें खेपते स०
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