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________________ १९० श्री कवि किशनसिंह विरचित गावें विनोद अनेक विनरी नीरमें तसु डारहीं; अति हास्य करती हरष धरती आप गेह सिधार ही ॥ १२०३॥ दोहा इह प्रभुता सब देखि कै, गौरी ईश महेश | वाकूं जलमें खेपतें, डर न कियो लवलेश ॥ १२०४ ॥ रहित सकत तिहि देखिये, करिवि थापना मूढ । महा मिथ्याती जान तिन, धारे दोष अगूढ || १२०५ ॥ सोरठा इन पूजै फल येह, कुगति अधिक फल भोगवै । यामें नहि सन्देह, जैनीको इह योग्य नहि || १२०६ || दुर्लभ नरभव पाय, जैन धरम आचार जुत । ताको चित विसराय, पूज करै गण-गौरिकी ॥ १२०७॥ सो मिथ्यातको मूल, त्रिविधि तजौ तिन सुखद लखि । होय धरम अनुकूल, तातै भव भव सुख लहै ॥ १२०८ ॥ ले जाकर जलके निकट पहुँचती हैं, वहाँ अनेक प्रकारकी विनरी (गीत) गाती हैं तथा उस गणगौरीको पानीमें डाल देती हैं । पश्चात् हर्षित होती हुई हास्यविनोद करती हुई अपने अपने घर वापिस आती हैं । १२०३॥ गौरी और महेशकी इतनी प्रभुता देखकर भी लोग उन्हें पानीमें डालते हुए थोड़ा भी भय नहीं करते यह आश्चर्यकी बात है । शक्ति रहते उनका दर्शन करते रहना चाहिये था । इससे सिद्ध है कि अज्ञानी जन ही उनकी स्थापना करते हैं । स्थापना करने वाले महा मिथ्यात्वी हैं वे प्रकट ही अनेक दोषोंको धारण करते हैं ।।१२०४-१२०५ ।। ग्रन्थकार कहते हैं कि गणगौरीकी पूजासे प्राप्त होने वाला इस लोक संबंधी फल तो यही है कि कुगतिमें अधिक फल भोगना पड़ता है; इसमें कुछ भी संदेह नहीं है इसलिये जैनी जनों को यह पूजा योग्य नहीं है ॥ १२०६ ॥ Jain Education International जैनधर्म संबंधी आचार सहित दुर्लभ मनुष्यपर्याय प्राप्त करके भी लोग उसे भुला कर गणगौरीकी पूजा करते हैं यह मिथ्यात्वका मूल है अतः इसका मन, वचन, कायासे त्याग करो । ऐसा करनेसे ही सुखदायक धर्म अनुकूल होगा और भवभवमें उससे सुखकी प्राप्ति होगी ।। १२०७ - १२०८॥ १ जुवती न० स० २ वाय तलामें खेपते स० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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