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क्रियाकोष
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असौज है आठे स्वेत, घोटक पूजे धरि हेत । जिनराज एम बखानी, तिरयंच है पूजे प्रानी ॥११५९॥ सो पाप अधिक उपजावे, कहते कछु ओर न आवे । तातै जैनी जो होय, पसु पूजि न नरभव खोय ॥११६०॥
दसराहाका दिन मांहीं, लाडू पीहर ले जाहीं ।। इह रीति तजो भवि जीव, जिन वच धरि हृदय सदीव ॥११६१॥ जिन २चैत्यन वनके मांहीं, पून्यो दिन सरद कराहीं । आगममें कहुं न बखानी, विपरीत तजो तिह जानी ॥११६२॥ मंगल तेरसि दिन न्हावै, वसतर तन उजले ल्यावै । आवे जब दिवस दिवाली, दीवा भरे तेल हवाली ॥११६३॥ निज मंदिर ऊपर धरि है, अति ही सोभा सो करि है । तिनमें बहु त्रसको घात, अघ घोर महा उतपात ॥११६४॥ दीवा थालीमें धरिकैं, मिलहैं तस घर घर फिरकै ।
तिनमें कछु नांहि बडाई, प्राणी मरिहै अधिकाई॥११६५॥ कितने ही लोग आसोज सुदी अष्टमीके दिन आदरपूर्वक घोड़ेकी पूजा करते हैं परन्तु . जिनेन्द्रदेव ऐसा कहते हैं कि घोड़ा तिर्यंचगतिका जीव है। इसके पूजनसे इतना अधिक पाप उपार्जित होता है कि कहने पर उसका अन्त नहीं आता। इसलिये जो जैनधर्मके धारक हैं वे पशुकी पूजा कर अपने मनुष्यभवको व्यर्थ न खोवें ॥११५९-११६०।।
कितने ही लोग धर्म समझकर दुसराहा-दशहराके दिन पीहरको लाडू ले जाते हैं सो हे भव्यजीवों ! इस रीतिको छोड़ो और जिनेन्द्रदेवके वचनोंको सदा हृदयमें धारण करो ॥११६१॥
कितने ही लोग जिनमंदिरके बागमें शरद पूर्णिमाका उत्सव मनाते हैं परन्तु आगममें कहीं भी इसका वर्णन नहीं है इसलिये विपरीत जानकर इसका त्याग करो ॥११६२।।
कितने ही लोग दीवालीके पूर्व धनतेरसके दिन स्नान कर शरीर पर उज्ज्वल वस्त्र धारण करते हैं और दीवालीका दिन आने पर दीपकोंमें तेल भर कर उन्हें प्रज्वलित करते हैं तथा शोभाके लिये अपने मकानोंके ऊपर रखते हैं। उन दीपकोंमें बहुतसे त्रस जीवोंकी हिंसा होती है जिससे महा दुःखदायी घोर पापका बन्ध होता है ।।१०६३-१०६४।।
कितने ही लोग थालीमें प्रज्वलित दीपक रख कर घर घर घूमते हैं परन्तु इस क्रियामें कुछ भी बड़ाई नहीं है, प्रत्युत इसमें अनेक जीवोंका मरण होता है। पापी लोग इसका भेद नहीं
१ दशराह दिवसके मांही स० २ चैत्यभवनके स० न०
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