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क्रियाकोष
छप्पय
दिवस उदय द्वय घडी चढत पीछें ते लेकर, अस्त होत द्वय घडी रहै पीछलौ एते पर; भोजन जे भवि कर तजै निशि चार अहार ही, खादिम स्वादिम लेह्य पान मन वच कर वार ही; सो निसि भोजन तजन वरत, नित प्रति जो जिनराज बखानियो । इह विधि नित प्रति चित्त धरि, श्रावक मन जिहिं मानियो ॥९०४॥
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चित्रकूट गिरि निकट ग्राम मातंग वसै जहै, नाम जागरी जान कुरंगचंडार तिया तहै; तिहि निसिभोजन तजन वरत सेठणिपै लियो, मन वच क्रम व्रत पालि मरण शुभ भावनि कियो; वह सेठ तिया उरि ऊपनि, सुता नागश्रिय जानिये । जिन कथित धर्मविधिजुत गहिवि, सुरगतणा सुख तिन लिये || ९०५॥ तिरयग एक सियाल सुणिवि मुनिकथित धरम पर, रिषि निसिभोजन तजन वरत दीयो लखि भविवर; त्रिविध शुद्ध व्रत पालि सेठसुत है प्रीतिंकर, विविध भोग भोगए नृपति-पुत्री परणवि वर; मुनिराज पास दीक्षा लई, उग्र घोर तप ध्यान सजि । वसु कर्म क्षेपि पहुंचे मुकति, सुख अनन्त लहि जगतमहि ॥ ९०६ ॥
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दो घड़ी दिन चढ़नेके बादसे लेकर दो घड़ी सूर्यास्त होनेके पूर्व तक भोजन करे, पश्चात् रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य और स्वाद्यके भेदसे चारों प्रकारके आहारका त्याग करना रात्रिभोजन त्याग व्रत कहलाता है । इस व्रतको श्रावक नित्य प्रति हृदयसे धारण करते हैं ऐसा जिनदेवने कहा है || ९०४|| चित्रकूट पर्वतके निकट मातंगग्राममें एक जागरी नामका भील रहता था, उसकी स्त्रीका नाम कुरंगचंडार था । उसने सेठानीसे रात्रिभोजन त्याग व्रत लिया और मन वचन कायसे उसका पालन किया । अंतमें शुभ भावोंसे मर कर वह उसी सेठानीके उदरसे नागश्री नामकी कन्या हुई । नागश्रीने विधिपूर्वक जिनधर्मको धारण कर स्वर्गका सुख प्राप्त किया ।। ९०५।। एक शृंगाल तिर्यंचने मुनि महाराजके द्वारा कथित धर्मका उपदेश सुन कर रात्रिभोजनत्याग व्रतको धारण किया और मन वचन कायासे उसका पालन कर वह प्रीतिंकर नामका श्रेष्ठपुत्र हुआ, उसने राजपुत्रीके साथ विवाह कर विविध भोग भोगे । पश्चात् मुनिराजके पास दीक्षा लेकर उसने घोर तप किया और ध्यानके द्वारा आठों कर्मोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर अनन्त सुख प्राप्त किया ॥ ९०६ ॥ इस व्रतको धारण कर पूर्वकालमें अनेक स्त्री-पुरुषोंने
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