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श्री कवि किशनसिंह विरचित
लुंकामत प्रगट्यो अति घोर, पापरूप जाको नहि ओर । 'तिन तें ढूंढामत थाप्यो, काल दोष गाढो है वाढ्यो॥१०२४॥
छन्द चाल पापी नहि प्रतिमा माने, ताकी अति निन्दा ठाने । जिनगेह करनकी बात, तिनको नहि मूल सुहात ॥१०२५॥ यात्रा करवो न बखानै, पूजा करिवो अवगानै । जिन-बिम्ब प्रतिष्ठा भारी, करिवो नहिं कहै लगारी॥१०२६॥ जिन-भाष्यो तिम अनुसारी, रचिया मुनि ग्रंथ विचारी । तिनको निंदै अधिकाई, गौतम वच ए न कहाई ॥१०२७॥ ऐसे निरबुद्धी भाखै, कलपित झूठे श्रुत आखै । सबको विपरीत गहावै, निज खोटे मारग लावै ॥१०२८॥ जिय उत्पति भेद न जाने, समकितहूँ को न पिछाने । गुरु देव शास्त्र नहि ठीक, किरिया अति चलै अलीक ॥१०२९॥ निजको मानै गुणथान, छट्टो मुनिपद सरधान । जामैं मुनिगुण नहि एक, मिथ्या निज मतिका टेक ॥१०३०॥
मत प्रकट हुआ जो अतिशय भयंकर और पापरूप था। उसी लुका मतने ढूंढिया मतकी स्थापना की जो कालदोषसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥१०२३-१०२४॥
ये पापी प्रतिमाको नहीं मानते हैं, उनकी बहुत निन्दा करते हैं। जिनमंदिरके निर्माणकी बात तो उन्हें मूलरूपसे ही अच्छी नहीं लगती। वे तीर्थयात्रा करनेका व्याख्यान नहीं करते, पूजा करनेकी निन्दा करते हैं, जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा करना योग्य नहीं मानते, जिनेन्द्र देवके कथनानुसार मुनियोंने जिन ग्रंथोंकी रचना की थी उनकी ये निन्दा करते हैं, ये वचन गौतम गणधरके नहीं है ऐसा कहते हैं। ये निर्बुद्धि पूर्वरचित ग्रन्थोंको कल्पित और झूठा कहते हैं, सबको विपरीत कहते हैं और अपने खोटे मार्गमें लगाते हैं ॥१०२५-१०२८॥
ये ढूंढ़िया लोग जीवकी उत्पत्ति नहीं जानते, सम्यक्त्वकी पहिचान नहीं रखते, देव शास्त्र गुरुको ठीक नहीं मानते, मिथ्या क्रियासे चलते हैं, गुणोंके स्थान न होने पर भी अपने आपको छठवें प्रमत्त गुणस्थानकका धारक मानते हैं। उनमें मुनिका एक भी गुण नहीं है, मात्र अपने मतकी मिथ्या टेक अर्थात् पक्षपात है ॥१०२९-१०३०॥
१ तिनमें ढूंढ्या मत नीकलो, कालदोष गाढ्या है चलो। स०
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