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क्रियाकोष
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दोहा इस दरसन सरधान करि, निश्चै अरु व्यवहार । पूरव कथन विशेषतें, कह्यौ ग्रन्थ अनुसार ॥८७७॥ सात व्यसन निशि-अशन तजि, पालो वसुगुण मूल । चरम वस्तु जल बिन छण्या, त्यागो व्रत अनुकूल ॥८७८॥
चौपाई इत्यादिक मुनि वचन सुनेई, उपदेश्यो व्रत विधिवत लेई । हरषित आयो निजघरमांहि, तासु क्रिया लखि सब विसमांहि ॥८७९॥ अहो सात विसनी इह जोर, अरु मिथ्याती महा अघोर ।। ताको चलन देखिये इसो, श्री जिन आगम भाष्यो तिसो ॥८८०॥ मात-पिता तसु नेह करेई, भूपति ताको आदर देई । नगरमांहि मानै सब लोग, विविध तणे बहु भुंजै भोग ॥८८१॥ पुण्य थकी सब ही सुख लहै, पाप उदै नाना दुख सहै । ऐसो जान पुण्य भवि करो, अघतें डरपि सबै परिहरो ॥८८२॥ महीदत्त बहु धन पाइयो, तत छिन पुण्य उदै आइयो ।
पूजा करै जपै अरिहंत, मुनि श्रावकको दान करंत ॥८८३॥ महीदत्तसे कहा। साथ ही यह भी कहा कि सात व्यसन और रात्रिभोजनका त्याग करो, आठ मूल गुणोंका पालन करो, चमड़ेमें रक्खी हुई वस्तुओंका त्याग करो और बिना छना हुआ जल छोड़ो। ऐसा करनेसे ही तुम्हारा सम्यग्दर्शनरूप व्रत अथवा दर्शन प्रतिमा नामक पहली प्रतिमाका पालन हो सकेगा ॥८७६-८७८।। ___मुनिराजके इत्यादिक वचन सुन कर तथा बताये हुए दर्शन व्रतको विधि पूर्वक ग्रहण कर हर्षित होता हुआ महीदत्त अपने घर आया। उसकी क्रिया देख कर सब लोग आश्चर्य करने लगे। कहने लगे कि अरे ! जो घोर सात व्यसनोंमें आसक्त था तथा महा मिथ्यादृष्टि था उसका आचरण ऐसा दीख रहा है जैसा जिनागममें कहा गया है ।।८७९-८८०॥ माता पिता उससे स्नेह करने लगे, राजा भी आदर देने लगा, नगरमें सब लोग उसे सन्मानकी दृष्टिसे देखने लगे और इस तरह वह विविध भोग भोगने लगा ॥८८१।। पुण्यसे जीव सब सुख प्राप्त करता है और पापके उदयसे नाना प्रकारके दुःख भोगता है, ऐसा जान कर हे भव्यजीवों ! पुण्य करो और पापसे डर कर उसका परित्याग करो ॥८८२॥ ___ महीदत्तको उसी समय ऐसा पुण्योदय हुआ कि उसे बहुत धन प्राप्त हो गया। अब वह अरिहन्त देवकी पूजा करता, जाप करता, मुनियों और श्रावकोंको दान देता ॥८८३।। उसने
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