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श्री कवि किशनसिंह विरचित निकसि नरकतें पाप उदै सांवर भयो, तिहँ भखि जीव अपार नरक पंचम गयौ, निकसि सूर है जीव भखै तिनको गिनै, अघ उपाय मरि नरक जाय सहि दुख घनै ॥८५१॥ अजगर लहि परजाय मनुष तिरयग ग्रसे, नरक जाय दुख लहैं कहे वाणी इसे; निकसि बघेरो थाय जीव बहु खाइया, पाप उपाय लहाय नरक दुख पाइया ॥८५२॥ गोधा तिरयग जाति निकसि तहँतै भयो. बहुत जन्तुकौं भखि नरक पुनि सो गयो; मच्छ तणी परजाय लई दुखकी मही, लघु मच्छादिक खाय उपाये अघ सही ॥८५३।। सो पापी मरि नरक गयो अति घोर में, स्वासति निमिष न लहै कहूँ निशिभोर में; तहँ भुगते दुख जीव याद जो आवही, निशि न नींद दिन नीर अशन नहि भावही ॥८५४॥
चौपाई निशि-भोजन-लंपट द्विज भयो, महापापको भाजन थयो । दस भव तिरयग गति दुख लह्यो,तिम दस भव दुख नरक निसह्यो ॥८५५॥
नरकसे निकल कर पापोदयके कारण वह सामर जातिका जानवर हुआ। वहाँ भी अनेक जीवोंको खा कर पाँचवीं नरक गया। वहाँसे निकल कर वह सूकर हुआ। वहाँ भी अनेकों जीवोंको खा कर पुनः नरक गया। वहाँसे निकल कर फिर अजगर हुआ और बहुत मनुष्य तथा तिर्यंचोंको खाकर नरक गया। वहाँके दुःख भोग कर पृथिवी पर गोह जातिका तिर्यंच हुआ । वहाँ अनेक जीवोंका भक्षण कर पुनः नरक गया। नरकसे निकल कर मच्छकी पर्यायको प्राप्त हुआ। वहाँ छोटे छोटे निर्बल मच्छोंको खा कर पापोपार्जन करता रहा। वहाँसे मर कर पुनः नरक गया। वहाँ पलभरके लिये भी सुख प्राप्त नहीं कर सका। वहाँ उसने रात-दिन जो दुःख भोगे उनका यदि स्मरण किया जाय तो रात्रिमें नींद नहीं आती और दिनमें खान पान नहीं सुहाता ॥८५१-८५४॥
रात्रिभोजनका लंपटी ब्राह्मण महा पापका भाजन हुआ। वह दश भव तिर्यंचके और दश भव नरकके दुःख भोगता रहा ॥८५५।। नरकसे निकल कर कहाँ उत्पन्न हुआ, यह सुनो। एक
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