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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तसु राजकाजके मांही, भोजनकी सुध न रहांही । बहु क्षुधाथकी दुख पायो, निसि अर्ध गया घरि आयो ॥ ८४० ॥ निसि पहर गई जब एक, तसु वनिता धरि अविवेक । रोटी जीमणकूं कीनी, बैंगण करणै मन दीनी ॥ ८४९ ॥ हांडी चूल्हे जु चढाई, पाडोसी हींगको जाई । इतनेमें हांडी मांही, मढक पडियो उछलाहि ||८४२॥ तिय बैंगण छौंके आय, मींढक मूवो दुख पाय । तब हांडी लेइ उतारी, रोटी ढकणी परि धारी ॥८४३ ॥ चिंटी रोटीमें आई, घृत सनमधिते अधिकाई । निसि बीत गई दो जाम, जीमण बैठो द्विज ताम ॥ ८४४ ॥ दोहा
निसि अँधियारी दीप बिनु, पीडित भूख अपार ।
जे निसि भोजी पुरुष हैं, तिनके नहीं विचार ||८४५ ॥
रोटी मुखमें देत ही, चिंटी लगी अनेक । विप्र होंठ चटकौ लियो, बडो दोष अविवेक || ८४६ ॥
राजकार्यमें व्यस्त होनेसे उसे भोजनकी सुध न रही। उसने भूखका बहुत दुःख पाया । जब रात्रिका आधा प्रहर बीत गया तब वह घर आया । धीरे धीरे जब रात्रिका एक प्रहर निकल गया तब उसकी विवेकहीन स्त्रीने ब्राह्मणके जीमनेके लिये रोटी बनाई । शाकके लिये बैंगन बनानेका विचार किया ।। ८४०-८४१ ॥
चूल्हे पर हण्डी चढ़ाकर हींग माँगनेके लिये पडौसिनके घर गई। इतनेमें एक मेण्डक उछल कर हण्डीमें जा पहुँचा । ब्राह्मणीने आकर उसी हण्डीमें बैंगन छौंक दिये । मेण्डक छटपटा कर मर गया । चूल्हेसे हण्डी नीचे उतारी । रोटी निकाल कर बर्तन पर रक्खी। घीके संबंधसे रोटीमें चींटियाँ हो गई जो देखनेमें नहीं आई। अब तक दो प्रहर रात बीत गई । ब्राह्मण जीमने बैठा ।।८४२-८४४॥
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रात अंधेरी थी, दीपक था नहीं और ब्राह्मण भूखसे पीड़ित था इसलिये उसने उसी अंधेरे में जीमना शुरू कर दिया। सो ठीक ही है क्योंकि जो रात्रिभोजी पुरुष हैं उनके कोई विचार नहीं रहता। ज्यों ही ब्राह्मणने मुखमें रोटी दी त्यों ही अनेक चींटियोंने उसका ओंठ काट लिया । वास्तवमें अविवेक एक बड़ा दोष है ।। ८४५-८४६॥
१ विसराही स० २ धरी स०
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