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श्री कवि किशनसिंह विरचित
दोहा निसि वासरको भेद बिन, खात नृपति नहि होय । सींग पूंछते रहित ही, पसू जानिये सोय ॥८२६॥ दिन तजि निसि भोजन करै, महापाप मतिमूढ । बहु मौल्या माणिक तजै, काच गहै घर रूढ ॥८२७॥
छंद चाल निसि मांहे असन करांही, सो इतने दोष लहाही । भोजनमें कीडी खाय, तसु बुद्धि नास हो जाय ॥८२८॥ जू उदरमांहि जो जाय, 'तहँ रोग जलोदर थाय । माखी भोजनमें खैहै, तत खिण सो वमन करै हैं ॥८२९॥ मकडी आवै भोजनमें, तो कुष्ठ रोग है तनमें । कंटक रु काठको खंड, फसिहै जो गलै प्रचंड ॥८३०॥ तसु कंठ विथा विस्तारे, है है नहि ढील लगारे । भोजनमें खैहै बाल, सुरभंग होय ततकाल ॥८३१॥ अरु असन करत निसिमांही, २व्यन्तरादिकतें उपजांही । इति आदि असन निसिदोष, सबही कौं है अघकोष ॥८३२॥
रात दिनके भेद बिना जो भोजन करता है वह मनुष्य नहीं है किन्तु सींग और पूछसे रहित पशु है, ऐसा जानना चाहिये ॥८२६।। जो दिन छोड़ कर रात्रिमें भोजन करता है वह दुर्बुद्धि महापापी है। वह बहुमूल्य मणियोंको छोड़ कर घरमें काच रखता है ।।८२७।। जो रात्रिमें भोजन करता है वह इतने दोष प्राप्त करता हैं-भोजनमें यदि कीड़ी (चिऊंटी) खा जावे तो बुद्धि नष्ट हो जाती है; पेटमें जुवां चला जावे तो जलोदर रोग हो जाता है; यदि मक्खी खा लेता है तो तत्काल वमन हो जाता है; मकड़ी यदि भोजनमें आ जाती है तो शरीरमें कुष्ठ रोग हो जाता है; यदि कंटक या काष्ठका खण्ड (टुकड़ा) गलेमें फँस जाता है तो कण्ठकी व्यथा तत्काल बहुत बढ़ जाती है, उसमें बिलकुल ढील नहीं होती। भोजनमें यदि बाल आ जाता है तो तुरत स्वर भंग हो जाता है। इसके सिवाय यदि रात्रिमें भोजन करता है तो व्यन्तर आदिका भय उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि रात्रिमें भोजन करनेसे इस प्रकारके दोष उत्पन्न होते हैं और ये सब दोष पापके भण्डार हैं अर्थात् अत्यधिक पापके स्थान हैं ॥८२८-८३२॥
१ तब न० २ व्यंतरके भय उपजाही क.
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