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श्री कवि किशनसिंह विरचित
मातुल तास महीदत्त सीस नवाय दियो अब ही । पूरव पाप किये मैं कौन सुभाषिये नाथ वहै सब ही || ८६३ ॥
दोहा
कौन पापतैं दुख लह्यो, सो कहिये मुनिनाह । सुख पाऊँ कैसे अबै, उहै बतावो राह ॥८६४॥
सवैया तेईसा
सो मुनिराज को सुन भो वछ, पूरव पाप कहौं तुझ याहीं, प्रोहित नाम भयो रुद्रदत्त- महीपतिके हथनापुर माहीं; सो निशिभोजन लंपट जोर पिपीलक कीट भखै अधिकाहीं, भोजन रात समय इक मींढक बैंगण साथ दियो मुखमाहीं ॥ ८६५॥ अडिल्ल छन्द
तास पापके उदय मरिवि घूघू भयो, नरक जाय पुनि काग होय नरकहि गयो; है बिलाव लहि नरक निकस सांवर भयो, नरक जाय है गृध्र पक्षि नरकहि लह्यो ||८६६ ॥
सूर्य घामसे संतप्त हो गया तब शांतिके लिये बिल्व- बेल वृक्षकी छायामें गया । वहाँ बेलके गिरनेसे उसका शिर फट गया। अशातावेदनीयके उदयसे उसे बहुत दुःख सहना पड़ा । सो ठीक ही है क्योंकि भाग्यहीन मनुष्य जहाँ जहाँ जाता है वहाँ वहाँ आपत्तिका भार ही उठाता है ||८६२॥
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मामाने महीदत्तको घरसे निकाल दिया । अकेला महीदत्त बनारस जा रहा था कि वनमें उसे मुनिराज मिल गये । वे मुनिराज तीन ज्ञानके धारी थे । महीदत्तने उन मुनिराजको शिर झुकाकर नमस्कार किया तथा पूछा कि हमने पूर्वभवमें कौनसा पाप किया है सो कहिये । किस पापके कारण मैंने यह दुःख पाया है और अब सुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ ? हे मुनिनाथ ! यह सब कहिये || ८६४ || मुनिराजने कहा कि हे वत्स ! तूने पूर्वजन्ममें जो पाप किया है वह कहता हूँ । हस्तिनापुरके राजाका जब तू रुद्रदत्त नामका पुरोहित था तब तूने रात्रिभोजनमें आसक्त होकर अधिक संख्यामें चींटियाँ खाई थी और बैंगनके साथ मेण्डक मुखमें रख दिया था || ८६५।। उस पापके उदयसे मरकर तू घूघू (उलूक) हुआ, फिर नरक गया, पश्चात् काक हुआ, फिर नरक गया, वहाँसे आकर बिलाव हुआ, पश्चात् नरक गया, तदनंतर सामर नामक
१ न० प्रतिमें यह सवैया निम्न प्रकारसे उपलब्ध है
मातुल तास महीदत्तकों घरतै जु निकास दियो तब ही, मारग जात बनारसके वनमांहि मुनीस मिले जब ही; । त्रय ज्ञान धरे रिषि ताहि महीदत्त सीस नवाय दियो तब ही, पूरव पाप किये हम कौन सु भाषिये नाथ वह अब ही ||८६३ ||
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