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क्रियाकोष
छाण्यो जल घटिका दुय मांहि, सन्मूर्च्छन उपजै सक नांहि । आज उसनकी विधि सब ठौर, व्यापि रही अति अघकी दौर ॥ ८०७||
ब्यालू निमित्त असन करि धरै, ता पीछे खीरा ऊबरै । तिनमें जल तातौ करवाहि, निसि सवारलौं सो निरवाहि ॥८०८|| मरयादा माफिक नहि सोय, ताकौं बरतो मत भवि लोय । कीजै उसन इसी विधि नीर, जो जिन आग्या पालन वीर ॥ ८०९ ॥ भात बोरिये जिह जलमांहि, वैसो जल जो उसन करांहि । आठ पहर मरयादा तास, सन्मूर्च्छन पीछें ह्वै जास ॥ ८१०॥ जो श्रावक व्रतको प्रतिपाल, तिहको निसि जलकी इह चाल । छाण्यो प्रासुक तातो नीर, मरयादामें बरतो वीर ॥ ८११॥
छंद चाल
वोछै कपडै जो नीर, छाणै श्रावक नहि कीर । मरयाद जिती कपडाकी, तासौ विधि जल छणिवाकी ॥ ८१२॥
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छाने हुए जलमें दो घड़ीके भीतर संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसमें संदेह नहीं है । आज पानीको गरम करनेकी जो विधि सब जगह चल रही है वह पापका स्थान बन रही है । जैसे ब्यालूके निमित्त भोजन बनवा कर लोग उसके पश्चात् एक बर्तन रख देते हैं उसमें जलको कुछ गरम करवाते हैं तथा उस जलको रात्रिमें प्रातः काल तक प्रयोगमें लाते हैं परन्तु वह पानी मर्यादाके अनुसार गरम नहीं होता है इसलिये हे भव्यजीवों ! उसे प्रयोगमें, व्यवहारमें मत लाओ । जो जिन आज्ञाका पालन करनेमें निपुण हैं वे पानीको इस विधिसे उष्ण - गर्म करें। जिसमें भात बनाया जाता है अर्थात् भात बनानेके लिये पानीको जितना गर्म किया जाता है उतना गर्म करना चाहिये । इस प्रकारके पानीकी मर्यादा आठ प्रहरकी है । पश्चात् उसमें संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं । जो श्रावकका व्रत पालते हैं उनके रात्रिमें बरतने योग्य जलकी यह विधि है । तात्पर्य यह है कि पानीको किंचित् गरम कर लेने मात्रसे वह रात्रिभर प्रयोगमें लानेके योग्य नहीं होता है । उसे विधिपूर्वक उतना गरम करना चाहिये जितना कि भात बनानेके लिये किया जाता है । ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि हे सामर्थ्यवंत पुरुषों ! छने हुए जलको, प्रासुक जलको और पक्के जलको मर्यादाके भीतर प्रयोगमें लाओ, मर्यादा बीत जाने पर नहीं ॥ ८०७-८११।।
जो श्रावक ओछे (छोटे) कपड़ेसे जल छानता है वह जीवोंकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात् जीव जलके भीतर चले जाते हैं । इसलिये जल छाननेके लिये कपड़ेकी जो मर्यादा कही है उसी मर्यादाके अनुसार जल छाननेकी विधि करना चाहिये ॥ ८१२ ||
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