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श्री कवि किशनसिंह विरचित
अडिल्ल द्वादशांगमय अंक सकल जाणो सदा, असन स्नान मल मूत्र अवर तियसंग सदा । वरण उचार करणन भाष्यो जैनमैं, यातें गहिये मौन सपत बिरियां समैं ॥६६८॥
चौपाई। मौन वरतके धारक जीव, चेष्टा इतनि न करी सदीव । भौंह चढाई नेत्र टिमकारि, करै जु सैन्या काम विचारि ॥६६९॥ सीस हलाय करै हूंकार, खांसै खंखारै अधिकार । कर अंगुलतें सैंन बताय, अथवा अंकोंमें लखिवाय ॥६७०॥ इतनी किरिया करिहै सोय, मौन वरत तसु मैलो होय ।। अर जो सैंन समस्या करी, मतलब समझै नहि तिहि घरी ॥६७१॥ मनमें अकुलाय रहै है क्रोध, क्रोध थकी नासै सुभ बोध । यातें जे भविजन मतिमान, मौन धरो आगम परवान ॥६७२॥ अरु तिह समय करै शुभ भाव, तातै कहिहै पुन्य बढाव ।
पुन्य थकी लहिहै सुर थान, यामै कछु संसै नहि आन ॥६७३॥ मौन रखनेका कारण यह है कि जितने वर्ण हैं वे सब द्वादशांगके अंक हैं इसलिये भोजन, स्नान, मल, मूत्र तथा स्त्रीप्रसंग करते समय उनके उच्चारणका निषेध जिनागममें कहा गया है इसलिये उपर्युक्त सात कार्य करते समय मौन ग्रहण करना चाहिये। भावार्थ-जिनपूजा और स्तुति करते समय जो मौन कहा गया है उसका प्रयोजन पूजा और स्तुतिके अतिरिक्त अन्य प्रकारकी बात करनेके त्यागसे हैं। पूजाके छन्द तथा स्तुति या स्तोत्र पढ़नेका निषेध नहीं है॥६६८॥
मौनव्रतके धारी जीवोंको इतनी चेष्टाएँ कभी नहीं करनी चाहिये-किसी वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छासे भ्रकुटी चढ़ाना और नेत्रोंकी टिमकारसे संकेत करना, सिर हिलाना, हुंकार करना, खांसना, खकारना, अंगुलिसे इशारा करना अथवा अक्षर लिख कर अभिप्राय प्रकट करना ॥६६९-६७०॥ जो इतनी क्रियाओंको करता है उसका मौन व्रत मलिन हो जाता है। संकेत करने पर यदि कोई अभिप्राय नहीं समझ पाता है तो मनमें आकुलता होती है तथा क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोधसे शुभ ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसलिये बुद्धिमान भव्यजनोंको आगमके अनुसार मौन रखना चाहिये। मौनके समय शुभभाव करना चाहिये। शुभ भावसे पुण्यकी वृद्धि होती हैं और पुण्यके प्रभावसे देवगति प्राप्त होती है इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिये॥६७१-६७३॥
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