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श्री कवि किशनसिंह विरचित देव शास्त्र गुरु ठीकता, तत्त्वारथ सरधान । निसंकादि गुण जो सहित, लखि दरसण मतिमान ॥६७८॥
सवैया धरममैं संका नांहि निसंकित नाम ताहि,
वांछाते रहित निकांक्षत गुण जानियै; ग्लान त्याग निरविचिकित्स देव गुरु श्रुत, __ मूढता तजैया सो अमौढ्यवान मानिये । परदोष ढांकै उपगूहन धरैया सोई,
भ्रष्टकौं सुथापै स्थितिकरण बखानिये; मुनि गृही धर्मको जु कष्ट टारै वात्सल्य है, मारग प्रभावना प्रभावत प्रवांनिये ॥६७९॥ अष्ट प्रकार ज्ञानकी आराधना
दोहा आठ प्रकार सुग्यानकौं, आराधै मतिमान । तसु वरनन संखेपते, कहै ग्रंथ परमान ॥६८०॥ प्रगट वरण लघु दीरघ जुति, करि विशुद्ध उच्चार ।
पाठ करै सिद्धांतको, व्यंजन ऊर्जित सार ॥६८१॥ सच्चे देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धा करना, तत्त्वार्थका श्रद्धान करना और निःशङ्कितत्व आदि गुण सहित प्रवर्तना, इसे सम्यग्दर्शन आराधना जानना चाहिये ॥६७८॥
धर्ममें शङ्का नहीं होना सो निःशङ्कित अंग है, भोगोपभोगकी इच्छासे रहित होना निःकांक्षित अंग है, ग्लानि छोड़ना सो निर्विचिकित्सा गुण है, देव और गुरुके विषयमें मूढ़ताका त्याग करना अमूढदृष्टि अंग है, दूसरेके दोष ढाँकना उपगृहन गुण है, भ्रष्ट होते हुएको स्थिर करना स्थितिकरण अंग है, मुनि अथवा श्रावकके ऊपर आये हुए धर्म संबंधी कष्टको दूर करना वात्सल्य अंग है और मार्गकी प्रभावना करना सो प्रभावना अंग है। इन आठ अंगरूप प्रवर्तना सो सम्यग्दर्शन आराधना है ॥६७९॥
आठ प्रकार सम्यग्ज्ञानकी आराधना ग्रंथकार कहते हैं कि हे बुद्धिमान जनों! सम्यग्ज्ञानकी आराधना आठ प्रकारकी होती है उसका जिनागमके अनुसार संक्षेपसे वर्णन करते हैं ।।६८०॥
ह्रस्व अथवा दीर्घ अक्षरोंका शुद्ध उच्चारण करते हुए सिद्धान्त ग्रंथोंका पढ़ना यह व्यंजनशुद्धि नामका प्रथम अंग है ॥६८१।।
१ निःसंकादिक गुण सहित न०
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